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तत्त्वार्थसूत्र [५. २३-२४. करता है। इसकी सहायता से फूलों आदिकी गन्ध एक स्थान से ६५ मील दूर दूसरे स्थानको तार द्वारा या बिना तारके ही प्रेपित की जा सकती है। स्वयं चालित अग्नि शामक (Automatic firc control) भी इससे चालित होता है। इससे स्पष्ट है कि अग्नि आदि बहुत से पुद्गलों की गन्ध हमारी नासिका द्वारा लक्षित नहीं होती किन्तु और अधिक सद्यहष ( शीघ्र व अधिक प्रभावित होनेवाले) यंत्रों से वह लक्षित हो सकती है। __जब कि सूर्य के वर्णपट ( Solar spectrum ) में सात वर्ण होते हैं व प्राकृतिक या अप्राकृतिक वर्ण ( natural and pigmentary colours ) बहुत से होते हैं ऐसी हालत में यह प्रश्न होता है कि जैन शास्त्रों में वर्ण के •मुख्य पांच ही भेद क्यों माने गये हैं। इसका यह उत्तर है कि जैन शास्त्रों में वर्ण से तात्पर्य वर्णपट के वर्णों अथवा अन्य वों से नहीं है किन्तु पुद्गल के उस मूल गुण ( fundamental property ) से है जिसका प्रभाव हमारे नेत्रकी पुतली पर लक्षित होता है और हमारे मस्तिष्क में रक्त, पीत, कृष्ण आदिरूप आभास कराता है। अमेरिका की अप्टिकल समिति ( Optical Society of America ) ने वर्ण की परिभाषा देते हुए बतलाया है कि 'वर्ण' शब्द एक व्यापक अर्थ में प्रयुक्त होता है जो नेत्र के कृष्णपटल ( Retina ) .
और उससे सम्बन्धित शिराओं की क्रिया से उद्भूत आभास का कारण है। रक्त, पीत, नील, श्वेत और कृष्ण इसके उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत किये जा सकते हैं।
पञ्च वर्णो का सिद्धान्त समझाने की प्रक्रिया यह है कि यदि किसी वस्तु का ताप बढ़ाया जाय तो सर्व प्रथम उसमें से अदृश्य ( dark ) ताप किरणें निस्सरित ( emitted ) होती हैं। उसके बाद वह रक्त वर्ण किरणें छोड़ती हैं। फिर अधिक ताप बढ़ानेसे वह पीतवर्ण किरणें छोड़ती हैं । यदि उसका ताप और अधिक बढ़ाया जाय तो