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________________ ४.२०.-२१] बैमानिक देवों में अधिकता व हीनता का निर्देश १८३ प्रत्येक इन्द्रियका जघन्य और उत्कृष्ट विषय बतलाया है। उसकी हा अपेक्षा नीचे नीचे के देवों से ऊपर ऊपर के देलको - इन्द्रियविपरा अधिक अधिक है। अर्थात् ऊपर ऊपर के देवों की इन्द्रियद्वारा विषय को ग्रहण करने की सामर्थ्य उत्तरोत्तर बढ़ती गई है। ऊपर ऊपर के देवों में अवधिज्ञान की सामर्थ्य भी बढ़ती गई हैं। प्रथम और दूसरे कल्प के देव अवधिज्ञान से पहली नरक भूमि तक जानते हैं। तीसरे और चौथे कल्प के देव दूसरी ७ अवधिविषय वाचविषय नरक भूमि त जानते हैं। पाँचवें से आठवें कल्प तक के देव तीसरी नरकमूमि तक जानते हैं। नौवें से लेकर बारहवें कल्प तक के देव चौथी भूमि तक जानते हैं तेरहवें से लेकर सोलहवें तक के देव पाँचवीं नरक भूमि तक जानते हैं। नौ प्रैवेयक के देव छठी नरक भूमि तक जानते हैं। तथा नौ अनुदिश और पाँच अनुत्तरवासी देव पूरी लोकनाली को जानते हैं। इससे ज्ञात होता है कि ऊपर ऊपर के देवों के अवविज्ञान को सामर्थ्य अधिक अधिक है ।। २१ ।। अब कुछ ऐसी बातों का भी निर्देश करते हैं जो आगे आगे कमती कमती पाई जाती है-- जिससे प्राणी एक स्थान से दूसरे स्थान को प्राप्त होता है वह गति है। यह गति ऊपर ऊपर के देवों में कमती कमती पाई जाती है। यद्यपि नीचे के देवों से ऊपर ऊपर के देव गमन १ गति गति करने की सामर्थ्य अधिक अधिक रखते हैं। जैसे सर्वार्थसिद्धि के देवों में सातवें नरक तक जाने की सामर्थ्य है परन्तु वे उसका उपयोग करने की कभी भी इच्छा नहीं करते । इतना ही नहीं किन्तु कल्पातीत देव तो अपने स्थान को छोड़ कर अन्यत्र जाते ही नहीं। कल्पोपपन्नों में भी नीचे के देव जितना अधिक गमनागमन
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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