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________________ तत्त्वार्थसूत्र [४. १२.१५. बदलती अपने स्वभाव से है किन्तु उसके बदल का साधारण निमित्त कारण काल द्रव्य है। यहाँ तो कालविमाग अर्थात् व्यावहारिक काल के आधारभूत पदार्थ के निर्देश करने का प्रयोजन रहा है। जैसा कि ऊपर बतलाया गया है इस व्यावहारिक काल विभाग का मुख्य आधार सूर्य की गति है। यह स्थूल काल विभाग इसी पर अवलम्वित है। इसलिये इससे स्थूल काल का ज्ञान हो जाता है समय आदि सूक्ष्म काल का नहीं, क्योंकि समय का प्रमाण वस्तु की एक पर्याय का अवस्थान काल है। उसके बदल जाने पर दूसरा समय चालू हो जाता है। इस प्रकार 'वन्तु की जितनी पर्याय उतने समय' यह नियम फलित होता है। ऐसे असंख्यात समयों की एक प्रावली होती है और असंख्यात आवलियों का एक मुहूर्त । यहाँ पर्यायों का विभाग करके और उनकी क्रमकिता के आधार पर उससे व्यवहार काल फलित किया जाकर उसका मेल सूर्य गति से निष्पन्न हुए काल विभाग से बिठलाया गया है। इस प्रकार यह काल मुहूर्त, दिन-रात, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, वर्ष और युग आदि अनेक प्रकार का है। तीस मुहूर्त का एक दिन रात है। पन्द्रह दिन-रात का एक पक्ष है। दो पक्ष का एक मास, दो मास की एक ऋतु, तीन ऋतुओं का एक अयन, दो अयन का एक वर्ष और पाँच वर्ष का एक युग होता है। यह सब विभाग सूर्य के अस्त और उदय पर अबलम्बित है। इसलिये प्रस्तुत सूत्र में काल विभाग का कारण गमन करनेवाले ज्योतिष्क मण्डल को बतलया है।। १४ ।। जैसा कि पहले बतलाया है ढाई द्वीप के बाहर ज्योतिष्क मण्डल सदा अवस्थित रहता है। इससे जैसा दिन-रात का भेद ढाई द्वीप में - देखा जाता है ऐसा भेद ढाई द्वीप के बाहर नहीं * दिखाई देता है । वहाँ जिस प्रदेश में सूर्य का प्रकाश मण्डल न पहुँचता है वहाँ वह सदा ही एक-सा बना रहता है और जहाँ नहीं पहुंचता है वहाँ सूर्य के प्रकाश का अभाव बना रहता
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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