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________________ १६४ तत्त्वार्थसूत्र [३. ३८-३९... देवकुरु और उत्तरकुरु के सिवा भरत, ऐरावत और विदेह ये कर्मभूमियाँ हैं। जहाँ सातवें नरक तक ले जानेवाले अशुभकर्म और सर्वार्थसिद्धि तक ले जानेवाले शुभ कर्म का अर्जन होता है वह कर्मभूमि है । या जहाँ पर कृषि आदि षटकर्म और दानादि कर्म की व्यवस्था है वह कर्मभूमि है। या जहाँ पर मोक्ष मार्ग की प्रवृत्ति चालू है वह कर्मभूमि है। पहले ढाई द्वीप में पैतीस क्षेत्र और छथानवे अन्तर्वीप बतला आये हैं उनमें से पाँच भरत, पाँच ऐरावत और पाँच विदेह ये पन्द्रह क्षेत्र ही कर्मभूमियाँ हैं। इनके सिवा सब क्षेत्र और अन्तर्वीप अकर्मभूमि अर्थात् भोगभूमि हैं। देवकुरु और उत्तरकुरु ये विदेह क्षेत्र के अन्तर्गत हैं । इसलिये विदेहों में कर्मभूमि की व्यवस्था बतलाने पर इनमें भी वह प्राप्त होती है, किन्तु पाँच देवकुरु और पाँच उत्तरकुरु इन, दस क्षेत्रों में कर्मभूमि की व्यवस्था नहीं है, इसलिये प्रस्तुत सूत्र में इन दस भूमियों को कमभूमियों से पृथक् बतलाया है। इस प्रकार कुल मिलाकर पन्द्रह कर्मभूमियाँ और तीस अकर्मभूमियाँ प्राप्त होती हैं ।। ३७॥ - मनुष्यों और तिर्यञ्चों की स्थितिनृस्थिती परापरे त्रिपल्योपमान्तर्मुहूर्ते ॥ ३८ ॥ तिर्यग्योनिजानां च ॥ ३९ ॥ मनुष्यों की उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपम और जघन्य अन्तर्मुहूर्त है। तिर्यञ्चों की स्थिति भी उतनी ही है। प्रस्तुत दो सूत्रों में मनुष्यों और तिथंचों की जघन्य और उत्कृष्ट । आयु बतलाई है। दोनों की जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट श्रायु ____ तीन पल्योपम है। पल्योपम उपमा प्रमाण का एक पल्योपम का प्रमाण भेट है। यह तीन प्रकार का है-व्यवहार पल्योपम, उद्धारपल्योपम और अद्धापल्योपम । प्रमाणाङ्गल से गिनकर एक
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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