SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 199
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थसूत्र [३. १.-६. रहते हैं। नरकों में उत्पन्न होने के कारण ये नारक कहलाते हैं ॥२॥ इनकी लेश्या, परिणाम, देह, बेदना और विक्रिया उत्तरोत्तर अशुभ अशुभ होती है । रत्नप्रभा में कापोत लेश्या है। शर्करा प्रभा में . कापोत है पर रत्नप्रभा की कापोत लेश्या से अधिक लेश्या " अशुभ है। वालुका प्रभा में कापोत और नील लेश्या है। पङ्कप्रभा में नील है ।धूम प्रभा में नील और कृष्ण लेश्या है। तमः प्रभा में कृष्ण लेश्या है और महातमः प्रभा में परम कृष्ण लेश्या है। ये लेश्याएँ उत्तरोत्तर अशुभ अशुभ हैं। यद्यपि ये अन्तर्मुहूर्त में बदलती रहती हैं पर जहाँ जिस लेश्या के जितने अंश बतलाये हैं उन्हीं के भीतर परिवर्तन होता है। नारकी लेश्या से लेश्यान्तर को नहीं प्राप्त होते । जहाँ दो लेश्याएँ बतलाई हैं। वहाँ ऊपर के भाग में प्रथम और नीचे के भाग में दूसरी लेश्या जानना चाहिये । शरीर का रंग तो इन सब का कृष्ण ही है। परिणाम से यहां पुद्गलों का स्पर्श, रस, गन्ध, रूप और शब्दरूप परिणमन लिया गया है। ये सातों नरकों में उत्तरोपरिणाम त्तर तीव्र दुःख के कारण और अशुभतर हैं। सातों नरकों के नारकों के शरीर अशुभ नाम कर्म के उदय से होने के कारण उत्तरोत्तर अशुभ हैं। उनकी विकृत देह आकृति है, हुंड संस्थान है और देखने में बुरे लगते हैं। प्रथम भूमि में उनकी ऊँचाई सात धनुष, तीन हाथ और छह अंगुल है । तथा द्वितीयादि भूमियों में उत्तरोत्तर दूनी दूनी है। नारकों के सदा असाता वेदनीय का ही उद्य रहता है और वहाँ वेदना के बाह्य निमित्त शीत और उष्णता की उत्तरोत्तर अति तीव्रता है जिससे उन्हें उत्तरोत्तर तीव्र वेदना होती है। प्रथम " चार भूमियों में उत्तरोत्तर उष्णता की प्रचुरता है। पाँचवीं भूमि में ऊपर के दो लाख नरकों में उष्णता है तथा शेष में । वेदना
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy