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१२८ तत्त्वार्थसूत्र
[२. ५३. पहिचान होती है वह द्रव्य स्त्रीवेद है। जिससे द्रव्य पुरुषकी पहिचान होती है वह द्रव्य पुरुषवेद है । और जिनके शरीर के चिन्ह न तो स्त्री रूप होते है और न पुरुष रूप ही किन्तु मिले हुए मिश्र प्रकार के होते हैं वह द्रव्य नपुंसक है।
उक्त तीनों वेदों का काल न्यूतन पर्याय के प्रथम समय से लेकर उस पर्याय के अन्तिम समय तक बतलाया है। अर्थात् एक पर्याय में
वेद नहीं बदलता है। इससे कुछ भाई इसे द्रव्यवेद काल का काल मान कर द्रव्यवेद और भाववेद का साम्य सिद्ध करते हैं। किन्तु ऐसे अनेक प्रमाण पाये जाते हैं जिनसे एक पर्याय में द्रव्यवेद का बदलना सिद्ध होता है। ____नारक और सम्मूर्छिन जीवों के नपुंसक वेद होता है। देवों के नपुंसक वेद नहीं होता शेष दो वेद होते हैं। शेष जीवों के अर्थात् गर्भज
_ मनुष्यों तथा तिर्यंचों के तीनों वेद होते हैं। यहाँ विभाग इतना विशेष जानना चाहिये कि पहले जो द्रव्यवेद और भाववेद की चर्चा की है सो कर्मभूमि में गर्भज मनुष्यों और तियचों में इनका वैषम्य भी होता है ।। ५०-५२ ।।
आयुष के प्रकार और उनके स्वामी * औषपादिकचरमोत्तमदेहाऽसंख्येयवर्षायुषोऽनपवायुषः ॥५३॥ ___औपपादिक (देव और नारक ) चरमोत्तम शरीरी और असंख्यात वर्षजीवी ये अनपवयं आयुवाले ही होते हैं।
अधिकतर प्राणियों का विष, श्वासोच्छवास का अवरोध, रोग आदि के निमित्त से अकाल में मरण देख कर यह प्रश्न होता है कि क्या अकाल मरण होता है ? यदि अकाल मरण होता है यह मान लिया जाय तो दूसरों प्रश्न यह होता है कि जितने भी संसारी प्राणी हैं उन सबका अकाल मरण होता है या सबका न हो कर कुछ का ही
** श्वेताम्बर पाठ 'औपपातिकचरमदेहोत्तमपुरुषाऽसं-' श्रादि है ।