SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 165
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११० तत्त्वार्थसूत्र [ २.२५.-३०. तथा विग्रहगति के पाणिमुक्ता, लाङ्गलिका और गोमूत्रिका ये तीन भेद हैं। पाणि पर रखा हुआ मुक्ता एक मोड़ा लेकर जमीन पर गिरता है। इसी प्रकार जिसमें एक मोड़ा लेना पड़े वह पाणिमुक्ता गति है। लाङ्गल हन का नाम है। इसमें दो माड़ा होते हैं। इसी प्रकार जिसमें दो मोड़ा लेना पड़ें वह लाङ्गलिका गति है तथा जिसमें गोमूत्र के समान अनेक अर्थात् तीन मोड़ा लेना पड़े वह गोमूत्रिका गति है। यहाँ अनेक का अर्थ तीन लिया है, क्यों कि जीव को पूर्व शरीर का त्याग करके नवीन शरीर को प्राप्त होने में तीन से अधिक मोड़े नहीं लेने पड़ते हैं। सबसे वक्ररेखा में स्थित निष्कुट क्षेत्र बतलाया है किन्तु वहाँ उत्पन्न होने के लिये भी अधिक से अधिक तीन मोड़े ही लेने पड़ते हैं। अन्तराल गतिका काल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट चार समय है। ऋजुगति में एक समय, पाणिमुक्ता गति में दो समय, लाङ्गलिका गति में तीन समय और गोमूत्रिका गति में चार समय लगते हैं। आशय यह है कि मोड़ा के अनुसार समय बढ़ते जाते हैं। ऋजुगति में उत्पत्ति स्थान तक पहुँचने में एक समय लगता है और विग्रहगति में प्रत्येक मोड़ा तक पहुँचने में एक समय लगता है इसलिये यदि एक मोड़ा है तो दो समय लगते हैं। दो मोड़ा है तो तीन समय लगते हैं और तीन मोड़ा है तो चार समय लगते हैं। इससे यह फलित हुआ कि मोड़ाओं में अधिक से अधिक तीन समय लगते हैं। और जो गति मोड़ा रहित होती है उसमें एक समय लगता है ।। २८-२९ ॥ मुक्त जीव कर्म और नो कर्म से सर्वथा मुक्त होता है इस लिये वह _ तो आहार लेता ही नहीं, यह स्पष्ट है। किन्तु संसारी अनाहारक का . । जीव प्रति समय आहार लेता है क्योंकि इसके बिना औदारिक आदि शरीर टिक नहीं सकता। अब प्रश्न यह उठता है कि अन्तराल में जब इस जीव के औदारिक शरीर नहीं काल
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy