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तत्त्वार्थसूत्र [२.२५.-३०. ___ शंका - तो फिर जो जीव ऋजुगति से न्यूतन शरीर को ग्रहण करता है उसके मध्य में कौन सा योग होता है ? ___ समाधान ---ऐसा जीव पूर्व शरीर के त्याग के बाद अनन्तर समय में शरीर को ग्रहण कर लेता है इसलिये इसके जिस न्यूतन शरीर का ग्रहण होता है वही योग होता है किन्तु वह कामण वर्गणाओं के निमित्त से आत्मा में हलन चलन क्रिया पैदा करता है इसलिये उसे मिश्रसंज्ञा प्राप्त होती है। अर्थात् ऐसे जीव के या तो औदारिक मिश्र काययोग या वैक्रियिक मिश्र काययोग होता है ।। २५ ।।
जीव और पुद्गल ये दो ही पदार्थ गतिशील हैं। इन दोनों में गमन-क्रिया की शक्ति है । निमित्त मिलने पर ये गमन करने लगते हैं।
। यद्यपि सब संसारी जीवों की और विविध पुद्गलों की गात का नियम गति का कोई नियम नहीं है। उनकी वक्र, चक्राकार या सरल हर प्रकार की गति होती रहती है। पर जो जीव एक पर्याय को त्याग कर दूसरी पर्याय को प्राप्त होने के लिये गमन करता है उसकी गति और पुद्गलों की लोकान्त प्रापिणी गति सरल ही होती है । सरल गति का यह मतलब है कि उक्त जीव या पुद्गल आकाश के जिन प्रदेशों पर स्थित हों, वहां से गति करते हुए वे उन्हीं प्रदेशों की सरल रेखा के अनुसार ऊपर नीचे या तिरछे गमन करते हैं। इसी को अनुश्रेणि गति कहते हैं। श्रेणि पंक्ति को कहते हैं। अनु का अर्थ है अनुसार। इसलिये अनुश्रेणि गति का अर्थ हुआ पंक्ति के अनुसार गति । इस प्रकार इस सूत्र द्वारा गति क्रिया का नियम किया गया है ॥२६॥ गति दो प्रकार की है ऋजु और वक्र । जिसमें प्राप्य स्थान सरल
रेखा में हो वह ऋजु गति है और जिसमें पूर्व स्थान गति के भेद व
से नये स्थान को प्राप्त करने के लिये सरल रेखा का "" "" भंग करना पड़े वह वक्र गति है। ये दोनों प्रकार की गतियां जीव और पुद्गल दोनों के होती हैं यह पहले वतला आये