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________________ १०२ तत्त्वार्थसूत्र [२.२२.-२४. समाधान-मनका मुख्य कार्य विचार करना है और यह विचार मूर्त तथा अमूर्त सरका किया जा सकता है। इसी से मनका विषय मत और अमूर्त दोनों प्रकार का पदार्थ माना है। वस्तुत इन्द्रियों द्वारा जिन पदार्थों का साक्षात्कार नहीं होता उनका मन अनुमानज्ञान या आगमज्ञान से ही चिन्तवन करता है। शंका पहले मतिज्ञान के तीन सौ छत्तीस भेद गिनाये हैं उनमें मन सम्बन्धी मतिज्ञान के भेद भी सम्मिलित हैं। किन्तु यहाँ मनका विषय श्रुत ही बतलाया गया है सो यह बात कैसे बन सकती है ? समाधान-यद्यपि मनसे मतिज्ञान और श्रतज्ञान दोनों होते हैं तथापि श्रत मुख्यतया मनका ही विषय है यह समझ कर 'श्रत मनका विषय है। ऐसा कहा है। जो विचार इन्द्रियज्ञान आदि तिमित्त के बिना इकदम उत्पन्न होता है और जब तक इसके निमित्त से अन्य विचार धारा चालू नहीं होती तब तक वह मतिज्ञान है। किन्तु इस प्राथमिक विचार के बाद विचारों की जितनी भी धाराएँ प्रवृत्त होती हैं वे सब श्रनज्ञान हैं। आशय यह है कि पाँच इन्द्रियों से केवल मतिज्ञान होता है और मन से मति श्रुत ये दोनों ज्ञान होते हैं । इसमें भी मति की अपेक्षा श्रुत की प्रधानता है इसलिये यहाँ श्रुत मन का विषय कहा है ॥ २१॥ इन्द्रियों के स्वामीवनस्पत्यन्तानामेकम् ॐ ॥ २२ ॥ कृमिपिपीलिकाभ्रमरमनुष्यादीनामे कैकवृद्धानि ।॥ २३ ॥ संज्ञिनः समनस्काः ॥ २४ ॥ वनस्पति तक के जीवों के एक इन्द्रिय है। * श्वेताम्बर पाठ 'वाय्वन्तानामेकम्' ऐसा है ।
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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