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________________ तत्त्वार्थसूत्र [२.१७.-२१. भाववेद के अनुसार द्रव्यवेद की प्राप्ति का नियम नहीं बनता। जैसे द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय का नियमन करनेवाला जाति नामकर्म है जैसे यहाँ ऐसा कोई कर्म नहीं जो द्रव्यवेद और भाववेद का नियमन करे। जिस प्रकार एक एक जाति से एक एक इन्द्रिय बंधी हुई है उसी प्रकार एक एक जाति से एक एक वेद भी बँधा होता तो निश्चित था कि वेदवैषम्य न होता । एक ही मनुष्य जाति के रहते हुए जैसे पाँचों इन्द्रियों की प्राप्तिका नियम है वहाँ कोई विकल्प नहीं उसी प्रकार यदि वेद का नियम होता विकल्प न होता तो वेदसाम्य ही होता। यतः जाति एक है और वेद कोई भी प्राप्त हो सकता है उसमें भी द्रव्यवेद और भाववेद का नियामक कोई कर्म नहीं, इसलिये वेदवैषम्य बन जाता है । जो अवस्था शरीर की है वही अवस्था द्रव्यवेद की जानना चाहिये। मनुष्य स्त्रीवेदी हो, पुरुषवेदी या नपुंसकवेदी उसके छह संस्थानों में से किसी एक संस्थान का और छह संहननों में से किसी एक संहनन का उदय होता है। वेद इसमें बाधक नहीं। यही बात द्रव्यवेद की है। मनुष्य स्त्रीवेदी हो, पुरुषवेदी हो या नपुंसकवेदी उसके मनुष्य जातीय किसी भी आंगोपांग का उदय हो सकता है वेद इसमें बाधक नहीं। इस प्रकार एक वेदवाले जीव के अनेक द्रव्य वेदों की प्राप्ति सम्भव होने से वेदवैषम्य होता है। शंका-यह वेदवैषम्य किस किस गति में प्राप्त होता है ? समाधान-मनुष्यगति और तिर्यंचगति में। शंका-क्या मनुष्यगति और तियचगति में सबके इसकी प्राप्ति सम्भव है? समाधान-नहीं। शंका-तो किन मनुष्य और तिर्यंचों के इसकी प्राप्ति सम्भव है ? समाधान- कर्मभूमि के गर्भज मनुष्य और तिर्यंचों के, क्योंकि वेदवैषम्य के जो कारण बतलाये हैं वे सब इन्हीं के पाये जाते हैं।
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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