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________________ तत्वार्थसूत्र [२.११.-१४ ___ आगम में जीवों की संख्या अनन्त बतलाई है। वे सब जीव मुख्य रूप से दो विभागों में बटे हुए हैं-संसारी और मुक्त। जिनके संसार पाया जाता है वे संसारी हैं और जो संसार से रहित हैं वे मुक्त हैं। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव के भेद से संसार पांच प्रकार का है। संसारी जीव परवश हो निरन्तर इस पांच प्रकार के संसार में परिभ्रमण कर रहे हैं। सम्यग्दर्शन होने के पूर्व तक इनका यह क्रम चालू रहता है, इसी से प्रथम प्रकार के जीव संसारी कहलाते हैं। किन्तु दूसरे प्रकार के जीवों का यह संसार सर्वथा छूट जाता है इसलिये उन्हें मुक्त कहते हैं। इस प्रकार जीवों के मुख्यतः संसारी और मुक्त ये दो ही भेद हैं यह सिद्ध होता है ।। १०॥ संसारी जीवों के भेद-प्रभेदसमनस्कामनस्काः ।।११।। संसारिणस्त्रसस्थावराः ॥ १२ ॥ पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः स्थावराः ॐ ॥ १३ ॥ द्वीन्द्रियादयस्त्रसाः ॥१४॥ मन वाले और मन रहित ये संसारी जीव हैं। तथा वे संसारी जीव त्रस और स्थावर हैं। पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक ये पांच स्थावर हैं। द्वीन्द्रिय आदि त्रस हैं। यहां संसारी जीवों के दो प्रकार से विभाग किये गये हैं। पहला विभाग मन के सद्भाव और असद्भाव की अपेक्षा से किया गया है * श्वेताम्बर मान्य सूत्र 'पृथिव्यम्बुवनस्पतयः स्थावराः' ऐसा है। * श्वेताम्बर मान्य सूत्र 'तेजोवायू द्वीन्द्रियादयश्च त्रसा: ऐसा है।
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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