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________________ १.२१.२२.] अवधिज्ञान के भेद और उनके स्वामी ३ जैसे अग्नि की चिनगारी छोटी होने पर भी क्रम से बढ़ते हुए सूखे ईंधन आदि दाह्य को पाकर क्रमशः बढ़ती जाती है वैसे ही जो अवधिज्ञान उत्पत्तिकाल में अल्प होने पर भी परिणामों की शुद्धि के कारण क्रम से बढ़ता जाता है वह वर्धमान अवधिज्ञान है। ४ जैसे परिमित दाह्य वस्तुओं में लगी हुई आग नया दाह्य न मिलने से क्रमशः घटती जाती है वैसे ही जो अवधिज्ञान अपने उत्पत्तिकाल से लेकर उत्तरोत्तर कमती कमती होता जाता है वह हीयमान अव. विज्ञान है। ५ जैसे शरीर में तिल मसा आदि चिह्न उत्पत्तिकाल से लेकर मरगा तक एक से बने रहते हैं न घटते है न बढ़ते हैं वैसे ही जो अवधिज्ञान मरण तक या केवलज्ञान की उत्पत्ति होने तक एक सा बना रहता है वह अवस्थित अवधिज्ञान है। ६ जल की तरंगों के समान जो अवधिज्ञान कभी घटता है कभी बढ़ता है और कभी अवस्थित रहता है वह अनवस्थित अचविज्ञान है। शंका-देव और नारकियों के तो भव के प्रथम समय से ही अवधिज्ञान होता है किन्तु शेष के तपश्चर्या आदि करने पर ही वह प्राप्त होता है सो ऐसा क्यों है ? समाधान--यह उस उस पर्याय की विशेषता है। जिस प्रकार पक्षियों में जन्म लेने के बाद ही आकाश में उड़ने की शक्ति आ जाती है मनुष्यों में नहीं पाती उसी प्रकार अवधिज्ञानकी उत्पत्ति के विषय में जानना चाहिये। अथवा जिस प्रकार चौपाये में उत्पन्न होने के बाद ही पानी में तैरने की योग्यता होती है मनुष्य में नहीं उसी प्रकार प्रकृत में जानना चाहिये ॥२१२२॥
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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