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15। सोही ध्यान है। जैसे अग्निकी शिखा निरावावप्रदेशमें चलाचलपणाते रहित होयकार स्थिर है दीप्यमान होय, तैसें जानना ॥
इहां विशेष श्लोकवार्तिकते लिखिये है । इस सूत्रविर्षे ध्याता ध्यान ध्येय ध्यानका काल ए च्यारि कह्या है। अर सामर्थ्यते याकी प्रवृत्तिकी सामग्री जानिये है । इहां कोई अन्यमती कहै है, जो, हमारे मतमें चित्तकी वृत्तिके निरोधक
योग कहा है। ताकं पूछिये, जो, साहीही चित्तकी वृत्तिका निरोध जाका कछ विषय नाहीं ऐसा कया है, कि, ज्ञानका मार्थ
शवचस्थिर होना कह्या है ? जो, आद्यकी पक्ष कहेंगा, तो निर्विषय तुच्छ अभावरूप है, जो प्रमाणभूत नाहीं अर स्थिर ज्ञानटी स्वरूप कहेगा, तो हमारी मिली । तहां वह कहै है, जो, हम तुच्छाभावरूप तौ नाहीं कहै । पुरुषका स्वरूपकेविर्षे ९. अवस्थानकं चित्तकी वृत्तिका निरोध कहै हैं । याहीकू समाधि कहिये है। असंप्रज्ञातयोग ध्यान ऐसा कहिये है तहां ।।३७१
समाधिवि शानका भी उच्छेद होय जाय है । तातें हमारै ऐसा कह्या है, जो, समाधिकालविर्षे द्रष्टा कहिये पुरुष ताका स्वरूपकवि अवस्यान होय है। आत्मा तो द्रष्टा है अर ज्ञाता प्रधान है। पुरुषका स्वरूपकेवि अवस्थान है, सो परम उदासीनपणा है । ताकू कहिये, जो, पुरुषकू द्रष्टा कहै हैं, जो ज्ञाता भी पुरुषही है। देखना जानना तौ दोऊ अविनाभावी है । जो प्रधानकू ज्ञाता कहेगा तो द्रष्टा भी प्रधानही ठहरैगा, तब पुरुष जड ठहरैगा ॥
इहां कहै, जो, शाता पुरुषकू कहे ज्ञान अनित्य है । तातै पुरुषकै अनित्यता आवैगी। तौ ऐसें तौ प्रधान भी अनित्य ठहरैगा । तब वह कहै, प्रधानका परिणाम तौ अनित्य हम मानेंही हैं। तौ ताईं कहिये ऐसेही पुरुषके पर्यायके शानके विशेषः अनित्य माननेमें कहा दोष है ? तब कहै जो पर्याय पुरुपते अभेदरूप है, तातै पुरुषकै अनित्यपणा आवै
है । तहां कहिये, जो, प्रधानते तिसका परिणाम कहा अत्यंतभिन्न है ? जाते प्रधानकै अनित्यता न आवै । तहां वह । कहै, जो, परिणामही अनित्य है परिणामी तौ नित्यही है । ताकू कहिये, जो, ऐसे है तो ज्ञान अरु आत्माफै अभेद
होते भी ज्ञानही अनित्य है, पुरुष नित्य है, या ठहरी । फेरि वह कहै, पुरुष तो अपरिणामीही है। तौ ताकं कहिये. १ प्रधान भी अपरिणामी क्यों न कहे ? तब वह कहै, व्यक्तिले प्रधान परिणामी कहिये, शक्तिलें नाहीं । तहां ताकं कहिये, पुरुप भी ऐसेंही हैं, यामें विशेष कहा ? जाते जो स्वत्वरूप है सो सर्वही परिणामी है । अपरिणामीकै तौ क्रमपणा अरु युगपत्पणा होय नाहीं । इनविना अर्थक्रिया होय नाहीं । तातें द्रष्टा है तैसेंही आत्मा ज्ञाता है । यामें बाधा नाहीं । ताते असंप्रज्ञातयोगरूप ध्यान कहै, सो बणें नाहीं । अज्ञानरूप पुरुषका स्वरूप अवस्थान संभवै नाहीं । याते जडपणा आवै है । बहुरि संप्रज्ञातयोग है सो ज्ञानकी वृत्ति ज्ञेयका होना तिसमात्र है, सो ज्ञानका स्वरूपही है। यामैं तो कछू विवाद नाहीं है । जातें ध्यान है सो ज्ञानहीका एकाग्र होना है ॥