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सिद्धि
टोका
पान
कहकार प्रायश्चित्त आपही ले ले, सो नवमां दोष है, यामें बडा प्रायश्चित्त ले तो फलकारी नांहीं ॥ अन्यमुनिनि अतीचार लाग्या होय तानें कछु प्रायश्चित्त लीया होय ताकू देखि तहां विचारै, जो, याकेसमान मोकू भी अतीचार
लाग्या सो या प्रायश्चित्त दिया सोही मोकू युक्त है ऐसे विचारि अपना दोष प्रगट न करना प्रायश्चित्त ले लेना, सो सर्वार्थ दशमां दोष है ॥ अपने अपराधकू घणे काल न राखणा तत्काल गुरुनिपै जाय कपटभावते रहित होय बालककी ज्यौं । वच
निका सहलपणांतें दोपनिषू कहै ताकै ए दोप नाही लागै हैं । म. ९ तहां मुनि तौ आलोचन करै, सो एक गुरु एक आप ऐसे दोयही होते एकान्तमें करै । अर अर्जिका करें, तब
३६६ एक गुरु होय दोय अर्जिका होय ऐसे तीनि होतें करें, सो प्रकाश होय जहां करै अंधकारमें न करै । बहुरि लज्जाकरि तथा अपमानके भयकरि दोष प्रगटकार अतीचार न सोधै तौ नाहीं है धनविर्षे लेना जाके ऐसा जो लोभी सो । धन विनशै खेदखिन्न रहै है तैसे चारित्रके दोषते खेदखिन्न रहै है । बहुरि जो आलोचना न करै तौ महान तप भी वांछित फलकू नाहीं दे है। जैसे कडी औपधि कायविर्षे गये विना फलदाता नाही, तैसें जानना । बहुरि आलोचन भी करै अर गुरुका दीया प्रायश्चित्त न ले तो भी महान फल न होय है । जैसे कोई अन्नादिक वीनने लगै, तामें एक एक
देखतें कंकर आदि देखता तो जाय, अर कंकरकू काढे नाही, तौ अन्न उत्तमस्वादरूप फलको नाहीं दे, तैसें जानना । र बहुरि आलोचनकार प्रायश्चित्त ले तो जैसे मांजा आरसामें रूप उज्वल दीखै तैसें व्रत उज्वल होय है ॥
प्रतिक्रमणका लक्षण पूर्व कह्याही है । बहुरि तदुभयका प्रयोजन यह है । कोऊ दोष तौ आलोचनहीतें मिटै है । कोऊ प्रतिक्रमणहीते मिटै है। कोऊ दोप दोऊ करें मिटें है। इहां कोई तर्क करै है, जो यह तो अयुक्त है। कहा, जो. विना आलोचन तौ प्रायश्चित्त नाहीं कह्या, फेरि कह्या, जो, प्रतिक्रमणहीते शुद्ध होय है, सो यहू अयुक्त है । बहुरि कहाँगे, , जो, आलोचनपूर्वक प्रतिक्रमण है, तौ तदुभयका कहना व्यर्थ है । ताका समाधान, जो, यह दोप इहां नाहीं है । जातें |
सर्वही प्रतिक्रमण आलोचनपूर्वकही है । परंतु यामें विशेष है, सो कहा ? जो पहली गुरुनिकी आज्ञाते शिष्य जानि रहे हैं, जो प्रतिक्रमणमात्रतें फलाणा दोष निर्वर्तन होय है । सो ऐसा दोपका प्रतिक्रमण तो शिष्यही कार ले है । सो तौ | आलोचनपूर्वक भयाही । बहुरि जो पहली जा दोषका प्रतिक्रमणकी गुरुनिकी आज्ञा नाहीं, सो आलोचनपूर्वकही शिष्य कर ही है । अर गुरु करै सो आपही कार ले है । बहार तिनकै आलोचना नाहीं है ॥
विवेकका विशेष जो, जा वस्तुवि सदोषका संदेह पड्या होय, तहां सदोपके वि निर्दोपका ज्ञान भया होय, तथा Lal जाका त्याग किया होय, जाका ग्रहण हो जाय, तिसका फिरि त्याग करना, सो विवेक है। कायोत्सर्ग करै है सो