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________________ सिदि ॥ अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्याग विविक्तशय्यासनकायक्लेशा बाह्यं तपः ॥ १९ ॥ सर्वार्थयाका अर्थ-- अनशन, अवमोदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन, कायक्लेश ए छह बाह्यतप हैं। निका टीका तहा इष्टफल कहिये धनकी प्राप्ति, जगतमें प्रशंसा स्तुति होना, रागादिक मिटना, भय मिटना, मंत्रसाधन करना इत्या पान दिक इसलोकसंबंधी फलकी अपेक्षा जामें नाहीं, तथा ऐसेंही परलोकसंबंधी विषयनिका सुखकी अभिलाषपणा स्वर्गआदिके ३६३ फलकी निदानरूप वांछा जामें नाहीं, अर संयमकी प्रसिद्धि, रागादिकका विनाश, कर्मकी निर्जरा, ध्यानकी प्राप्ति आगमके अभ्यासकी प्राप्तिः इनके अर्थि जो आहार कषायका विषयका त्याग करना, सो अनशन है ॥ १ ॥ बहुरि संयमकी वृद्धि, निद्रा आलस्यका नाश, वात पित्त कफआदि दोषका प्रशमन, संतोप, स्वाध्यायआदि सुखतें होना इत्यादिककी | सिद्धिके अर्थि आहार थोरा लेना, सो, अवमोदर्य है ॥ २ ॥ बहुरि मुनि आहारकू जाय तब प्रतिज्ञा करै, जो, एकही घर जावेंगे, तथा एकही रस्तामें प्रवेश करेंगे, तथा स्त्रीका दिया आहार लेंगे, तथा एकही द्रव्यका भोजन लेंगे इत्यादिक अनेकरीति हैं; तिसकी प्रतिज्ञा करि नगरमें जाय तिस प्रतिज्ञाकी रीति मिले तो ले, ना तरि फिरि आवै, सो वृत्तिपारसंख्यान तप है । यह आशाकी निवृत्तिके अर्थ है ॥ ३॥ बहुरि इन्द्रियका उद्धतपणाका निग्रह निद्राका जीतना स्वाध्याय सुखतें होना इत्यादिके अर्थि घृत आदि पुष्ट स्वादरूप रसका त्याग, सो चौथा रसपरित्याग तप है ॥ ४॥ बहुरि शून्यस्थानक आदि जे एकांत जगह जहा प्राणीनि पीडा न होय तहां संममी सोवना बैठना आसन करै, यातें आपके स्वाध्यायध्यानमें बाधा न होय, ब्रह्मचर्य पालै, स्वाध्यायध्यानकी सिद्धि होय, ऐसे पांचवा विविक्तशय्यासन तप है ॥ ५ ॥ बहुरि आतापके स्थान वृक्षका मूल इनविर्षे वसना, चौडै निरावरण शयन करना, बहुतप्रकार आसनकरि प्रतिमायोग करना, इत्यादिक कायक्लेश तप है ॥ ६ ॥ सो यहू देहकू कष्ट देनेके आर्थि है, परीषहके सहनको आर्थि है, सुखकी अभिलाषा मेटनेके अर्थि है, मार्गकी प्रभावनाके अर्थि है इत्यादि प्रयोजनके अर्थ जानना ॥ । इहां कोई पूछे, जो परीषहमें अर यामें कहां विशेष है ? ताका समाधान, जो स्वयमेव आवै सो तौ परीपह है | अर आप चलाय कर सो कायक्लेश है । फेरि कोई पूछे, इन छह तपनिके बाह्यपणां कैसें हैं ? ताका समाधान, जो, ये
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
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