SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 365
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वच नि का पान २४ . 51 अनंतधर्मात्मक एक जीवादि वस्तुका यहु स्यात् शब्द है सो द्योतक है॥ इहां प्रश्न - जो शास्त्रनिमें तौ स्यात् शब्द वाक्यवाक्यप्रति सुण्या नांही। तुम कैसें कहाँ हो ? जो सर्ववस्तुको स्यात् शब्दते साधिये। ताका उत्तर-जो शास्त्रमैं याका प्रयोग जहां नांही है तहां स्याद्वादी अर्थकरि सर्वशब्दनिपरि लगाय ले है। जाते वस्तुस्वरूप अनेकांतात्मक ही है तातै वस्तुके जाननेवाले स्यात् शब्दकों जानिले हैं। ऐसे श्लोकवासर्वार्थ || सिद्धिर्तिकमैं कया है । बहुरि इहां अन्य उदाहरण कहिये है । जैसे कोई एक मनुष्यनामा वस्तु है सो गुणपर्यायनिके समुटी का दायरूप तौ द्रव्य है । बहार याका देहप्रमाण संकोच विस्तार लीये क्षेत्र है । बहुरि गर्भते ले मरणपर्यंत याका काल है । बहुरि जेती गुणपर्यायनिकी अवस्था याकै हैं ते भाव हैं । ऐसे द्रव्यादि चतुष्टय यामैं पाईये है। तहां कालादिककरि अभेदवृत्तिकरि कहिये तब जेतें काल आयुर्बलपर्यत मनुष्यपणा नामा गुण है, तेते ही काल अन्य याके सर्वधर्म हैं, ऐस। कालकरि अभेदवृत्ति है । तथा जो ही मनुष्यपणांकै मनुष्यरूप करणां आत्मरूप है, सो ही अन्य अनेक गुणनिकै है। ऐसे आत्मरूपकरि अभेदवृत्ति है । तथा जो ही आधार द्रव्यनामा अर्थ मनुष्यपणाका है सो ही अन्य याके पर्यायनिका ।। है ऐसें अर्थकार अभेदवृत्ति है। तथा जो ही अभिन्नभावरूप तादात्म्यलक्षण संबंध मनुष्यपणांक है, गुणनिकै है, ऐसे संबंधकरि अभेदवृत्ति है । तथा जो ही उपकार मनुष्यपणांकार अपने स्वरूप करणां है, सो ही अन्य अवशेषगुणनिकरि कीजिये है, ऐसे उपकारकरि अभेदवृत्ति है । तथा जो ही गुणीका देश मनुष्यपणांका है सो ही अन्य गुणनिका है ऐसे गुणिदेशकार अभेदवृत्ति है । तथा जो ही एक वस्तुस्वरूपकार मनुष्यपणांका संसर्ग है, सो ही अन्य अवशेष धर्मनिका है, ऐसे संसर्गकार अभेदवृत्ति है । तथा जो ही मनुष्य ऐसा शब्द मनुष्यस्वरूप वस्तूका वाचक है, सो ही अन्य अवशेप अनेक धर्मोंका है, ऐसे शब्दकार अभेदवृत्ति है ॥ ऐसें पर्यायार्थिकनयके गौण होते द्रव्यार्थिकनयकी प्रधानतातें अभेदवृत्ति बणै है ॥ बहुरि द्रव्यार्थिक नय गौण होते पर्यायार्थिक प्रधान करतै कालादिककी अभेदवृत्ति अष्टप्रकार न संभवै है, सो भी | कहिये है । क्षणक्षणप्रति मनुष्यपणां और और गुणपर्यायरूप है । तातै सर्वगुणपर्यायनिका भिन्न काल है । एककाल एकमनुष्यपणांविर्षे अनेकगुण संभवै नाही । जो संभवै तौ गुणनिका आश्रयरूप जो मनुष्यनामा वस्तु सो जेते गुणपर्याय है तेते ठहरै । तातें कालकार भेदवृत्ति है । तथा अनेक गुणपर्यायनिकार कीया उपकार भी जुदा है । जो एक ही मानिये तो एक मनुष्यपणांही उपकार ठहरै । ऐसे उपकारकरि भेदवृत्ति है। तथा गुणिका देश है सो गुणगुणप्रति भेद क ही कहिये तो मनुष्यपणांहीका देश ठहरै अन्यका न ठहरै तातें गुणिदेशकर भी भेदवृत्ति है।
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy