________________
पान
हा है। सूक्ष्म जे परमाणु तथा धर्मादिक, अंतरित जे रामरावणादिक, दूर जे मेरुपर्वतादिक इन पदार्थनिका उपदेश सत्यार्थ है | । सो इनका प्रत्यक्ष देखनहारा सर्वज्ञ है तिसपूर्वक है। ए इंद्रियगोचर नाही। इनका चिह्न भी प्रत्यक्ष नाही । बहुरि
असर्वज्ञका उपदेशपूर्वक नाही। साक्षात् देखै है ताके कहे सत्यार्थ है। जैसे नदी, द्वीप, देश, कोई साक्षात् देखै ताके सर्वार्थ कहै सत्यार्थ मानिये तैसेंही सर्वपदार्थ सर्वज्ञके कहे सत्यार्थ हैं ॥ कोई कहे धर्म अधर्मका भी निर्णय करना, सकल वस्तूका
व च| साक्षात् ज्ञाताताई कहा प्रयोजन है ? तारूं कहिये है। सर्वज्ञविना धर्म अधर्मका भी निर्णय होता नाही। धर्म अधर्मका
निका फल स्वर्ग, मोक्ष, नरक, संसार कहिये है सो धर्म अधर्मका फलकै अम धर्म अधर्मकै साक्षात्संबंध देग्या होय ताहीका अ.10
कह्या सत्यार्थ होय । सो सर्वका ज्ञाताविना यह संबंध दिखै नाही। बहुरि मीमांसकळू पूछिये, तुम सर्वज्ञका जनावनहारा ज्ञायक प्रमाणका निषेध करौ हो; सो सर्व प्राणीनि संबंधी करौ हौ कि तुमसंबंधी करौ हौ ? जो सर्व प्राणीनि संबंधी निपेष करौ हौ तौ सर्वक्षेत्रकालके प्राणी तुमने देखिलीये, तब तुम ही सर्वज्ञ भये । सर्वज्ञका अभाव काहेदूं कही। बहुरि तुमही संबंधी कही हो तो युक्त नांही। तुमएं पूछे है, समुद्रमै जल केते बडा है ? जो न बतावोगे तो सर्वज्ञका अभाव मति कही ॥
बहुरि साख्यमती तथा नैयायिकनती कहै, जो सर्वत्र तो मानना परंतु कर्मका नाशकार सर्वज्ञ होय है यह बणै | नाही। ईश्वर तो सर्वथा सदामुक्त है, सदाही सर्वज्ञ है। ता] कहिये, जो ऐसा सर्वज्ञ ईश्वर जो गरीररहित कहोगे तो मोक्षमार्गका उपदेशक न वणेगा, गरीरविना वचनकी प्रवृत्ति नाही। वहरि शरीरसहित कहोगे तो गरीर कर्मका ही कीया होहै। यासंबंधी सुखदुवादिक सर्व बाकै टहरेंगे । ताने घातिकर्मका नाशकरि सर्वज्ञ होय । ताकै अयाति कर्मका उदय
रहै। तेते शरीरसहित अवस्थान रहै। तान वचनकी प्रवृत्ति विना इच्छा होय । ताहीत मोक्षमार्गका उपदेश प्रवते यह । युक्त है। याका विशेष वर्णन आगे होयगा ॥ वहरि बौद्ध सर्वज तो मानै परंतु तत्त्वका स्वम्प सबंधा आणिक स्थापै। यति । ताकै तो मोक्षमागका उपदेशकी प्रवृत्ति संभव ही नाही ॥ वहरि नास्तिकवादीकै कही संभवे नाही ॥ इनि सर्वमतनिका संवाद श्लोकवानिकवि कीया है तहातै जाननां । इहां ग्रंथविस्तार वधिनाय तातं संक्षेप लिया है ॥ आगे सर्वार्थसिद्धि टीकाकार सूत्रका प्रारंभका संबंध कह है ॥
कोई भव्य, निकट है सिन्दि जाकै, ऐसा बुद्धिमान अपने हितका इच्छुक है - सो किसी मुनिनके रहनेयोग्य स्थानक उद्यान , परम रमणीक जहां सिंहव्याघ्राटिक कमर जीव नाही, भले जीवनिका रहनेका ठिकाणां, ताविर्षे मुनिनिकी सभावि का बैठे। विनाही बचन अपने शरीरहीकी शांतमुद्राकरि मानं मृतिक मोक्षमार्गको निरूपण करते, युक्ति तथा आगमविर्षे प्रवीण, 21