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॥ सौधर्मशानयोः सागरोपमेऽधिके ॥ २९ ॥ याका अर्थ-- सौधर्म ऐशान स्वर्गविर्षे दोय सागर क्यों ( कुछ ) अधिक स्थिति है । इहां सूत्र में सागरोपमे ऐसा द्विवचन है, तातें दोय सागर लेने । बहुरि अधिक ऐसा शब्द अधिकारस्वरूप है सो सहस्रारस्वर्गताई लीजियेगा । तातें आगें सूत्रमें तु शब्द है । तातें ऐसा जाना जाय है । तातें इहां ऐसा अर्थ भया, सो, सौधर्म ऐशान इन दोय निका स्वर्गके देवनिकी आयु दोय सागर कुछ अधिक है । आगै, अगिले स्वर्गनिविर्षे स्थितीके जानने● सूत्र कहै हैं--
२९७ ॥ सानत्कुमारमाहेन्द्रयोः सप्त ॥ ३०॥ याका अथ-सानत्कुमार माहेन्द्र इन दोय स्वनिविर्षे सात सागर अधिक सहित है ॥ आगें ब्रह्मलोकादिकते है लगाय अच्युत स्वर्गपर्यंत स्थितीके जाननेकू सूत्र कहै हैं
॥ त्रिसप्तनवैकादशत्रयोदशपंचदशभिरधिकानि तु ॥ ३१ ॥ ___याका अर्थ- यहां पहल सूत्रमें सातसागर कहे हैं । तिनमें इस सूत्रमें कहे जे तीनि आदि ते अधिक करने : जोडने । बहुरि पूर्वसूत्रके अधिक शब्दकी अनुवृत्ति है । सो इस सूत्रमें तु शब्दकरि इहां च्यारि युगलनिताई तौ अधिक लेना, और अंतके दोय युगलमें न लेना, ऐसा अर्थ तु शब्दकरि भया । ताते इहां ऐसा अर्थ है, ब्रह्मलोक ब्रह्मोत्तर विर्षे तौ सातमें तीनि मिले तब दशसागरकी स्थिति अधिक सहित भई। लांतव कापिष्ठविर्षे सातमें सात मिले तब चौदहसागर अधिक सहित हैं। शुक्र महाशुक्रविर्षे सातमें नव मिले तब सोलहसागर साधिक हैं। शतार सहस्रारविर्षे सातमें ग्यारह मिले तब अठारहसागर साधिक है। आनत प्राणतविर्षे सातमें तेरह मिले तब बीस सागर अधिकरहित है । आरण अच्युतविर्षे सातमें पंद्रह मिले तब बाईस सागर अधिकरहित है । आगें इनके उपरि स्थिति जानने• सूत्र कहें हैं
॥ आरणाच्युतादूर्ध्वमेकैकेन नवसु अवेयकेषु विजयादिषु सर्वार्थसिध्दौ च ॥ ३२ ॥ याका अर्थ- इहां अधिकका ग्रहणकी अनुवृत्ति कार एकएक बढावना । अवेयककै नवशब्दका ग्रहण एक एक करि ।