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परमपूज्य चारित्रचक्रवर्ती आचार्यवर्य श्री १०८ शांतिसागर महाराजके आदेशसे श्री दिगंबर जैन जिनवाणी जीर्णोद्धारक संस्थाकी तरफसे ज्ञानदानके लिये छपी हुई
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श्रीवीतरागाय नमः वीर संवत् २४८ ॥ ॐ नमः सिद्धेभ्यः ॥
[ ग्रंथ प्रकाशन, समिति फलटण | ॥ अथ तत्त्वार्थसूत्रकी सर्वार्थसिद्धिटीका वचनिका पंडित जयचंदजी कृता ॥ दोहा- श्रीवृषभादि जिनेश्वर । अंत नाम शुभ वीर ॥ मन बच काय विशुद्धकरि। वंदौ परमशरीर ॥१॥
करमधराधर भेदि जिन । मरम चराचर पाय ॥ धरमवरावर कर नमूं। सुगुरुपरापरपाय ॥२॥ शब्दब्रह्मकू मैं नमूं। स्यात्पदमुद्रित सोय ॥ कहै चराचर वस्तुको। सत्यारथ मल धोय ॥३॥
आप्त मूल आगमतणूं। एकदेश जु अनूप ॥ तत्त्वारथ शासन सही। करौं वचनिकारूप ॥ ४ ॥ ऐसे आप्तआगमको नमस्काररूप मंगल करि श्रीउमास्वामी नाम आचार्यविरचित जो दशाध्यायरूप तत्त्वार्थशास्त्र, ताकी देशभापामय वचनिका लिखिये है। तहां ऐसा संबंधकी सूचना है । जो श्रीवर्धमान अंतिम तीर्थकरकू निर्वाण भये पीछे, तीन केवली तथा पांच श्रुतकेवली इस पंचमकालविर्षे भये। तिनिमें अंतके श्रुतकेवली श्रीभद्रबाहुस्वामीकू देवलोक गये पीछै कालदौपते केतेइक मुनि शिथिलाचारी भये । तिनिका संप्रदाय चल्या। तिनिमें केतेइक वर्ष पीछे एक देवर्षिगण नाम साधु भया। तिहि विचारी, जो, हमारा संप्रदाय तो बहुत वध्या, परंतु शिथिलाचारी कहावे हैं, सो यह युक्त नही। तथा आगामी हमतें भी हीनाचारी होयेंगे । सो ऐसा करिये; जो, इस शिथिलाचारकू कोई बुद्धिकल्पित न कहै । तब तिसके साधनेनिमित्त सूत्ररचना करी। चौरासी सूत्र रचे । तिनिमें श्रीवर्द्धमानस्वामी अर गौतमगणधरका प्रश्नोत्तरका प्रसंग ल्याय शिथिलाचार पोषणेके हेतु दृष्टांत युक्ति बणाय प्रवृत्ति करी। तिनि सूत्रके आचारांग आदि नाम धरे। तिनिमें केतेइक विपरीत कथन किये। केवली कवलाहार करै । स्त्रीकू मोक्ष होय । स्त्री तीर्थकर भये । परिग्रहसहितळू मोक्ष होय। साधु उप
मात्र आदि चौदह राखै । तथा रोग ग्लानि आदिकरि पीडित साधु होय तौ मद्यमांससहतका आहार करै । 16 तौ दोष नाही, इत्यादि लिख्या। तथा तिनिकी साधक कल्पितकथा बणाय लिखी। एक साधूकौं मोदकका भोजन करताही ||