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“बहिर्मखता"
__ "बहिर्मुखता" इस सम्प्रदाय में बडा दोष माना गया है। ईश्वर में आसक्ति न रख कर इन्द्रियसुख में आसक्ति रखनी इसे बहिर्मुखता कहते हैं और इन्द्रियों के सुख में आसक्ति न रखकर ईश्वर में आसक्ति रखनी उसे अन्तर्मुखता कहते हैं। बहिर्मुखता होने में मुख्य चार कारण हैं । अन्याश्रय, असमर्पितवस्तु भोग, असदालाप और दुःसंग ।
वैष्णव को इन चारों से सावधान रहना चाहिये और ऐसा प्रयत्न करना चाहिये जिस में उपर्युक्त चारों दोष न आजावें और वह प्रभु से बहिर्मुख न हो जाय ।
जब किसी प्रकार भी जीव बहिर्मुख हो जाता है तब काल और प्रवाहस्थ देह तथा चित्त, उस का भक्षण कर जाते हैं । अर्थात् तब जीव के अलौकिक देह चित्तादिक, लौकिक हो जाते हैं । इस लिये सर्वथा भगवान् के अन्तर्मुख ही रहना चाहिये । यदि जीव बहिर्मुख हो जाय तो उसी समय जीव के देह चित्तादिक, भगवान् के चरणामृत और