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'जीव' ।
जीव ब्रह्मका ही अश ह । किन्तु वह सम्पूर्ण ब्रह्म नहीं है इस लिये 'अहं ब्रह्मास्मि' इस का अर्थ 'मै ब्रह्म का एक अंश होने से ब्रह्म हूं' यह होता है । जीव वालकी नोंक का भी शतांश है । किन्तु फिर भी चैतन्य गुणयुक्त होने के कारण वह सारे शरीर में व्याप्त होजाता है और उस का प्रकाश सारे शरीर में फैल जाता है । निवन्ध मे आचार्यचरण ने आज्ञा की है
जीवस्त्वाराग्रमानो हि गंधवयतिरेकवान् । व्यापकत्वश्रुतिस्तस्य भगवत्त्वेन युज्यते ॥ जिस प्रकार दीपक एक जगह रक्खा होने पर भी उस का तेज चारों तरफ फैला हुआ रहता है अथवा जिस प्रकार पुष्प अत्यन्त छोटा होने पर भी उसकी गन्ध सर्वत्र फैल जाती है वैसे ही जीव की स्थिति एक जगह होने पर भी उस का चैतन्य सारे शरीर में फैल जाता है । जब जीव में