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अकाम मरणीय
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गृहस्थी सुत्रती ( सदाचारी ) कैसे बने ?
· (२३) गृहस्थ भी सामायिकादि अंगों को श्रद्धापूर्वक ( अर्थात् मन, वचन और काया से ) स्पर्श ( गृहण ) करे और महीने की दोनों पक्खियों को पौषध धारण करे । टिप्पणी-सामायिक - यह जैन दर्शन में आत्मचिंतन की क्रिया है । और इस क्रिया को श्रावक प्रायः हमेशा ही करते ही रहते हैं इन क्रियाओं को शुद्ध रीति से करते रहने से श्रात्म साक्षात्कार होकर मुक्ति की प्राप्ति हो सकती है । परन्तु ये सामायिक मात्र दो घड़ी भर की क्रिया है और पौषध क्रिया एक पूरे दिन रात तक आत्मचिंतन करने की क्रिया है । पौषध के दिन उपवास करे और सौम्यासन से बैठ कर आत्मचिंतन करता रहे ऐसा विधान है ।
(२४) इस तरह विचारपूर्वक गृहस्थावास में भी उत्तम व्रत से ( सदाचारी) रह सकने वाला जीव इस श्रदारिक ( मलिन ) शरीर को छोड़ कर देवलोक में जा सकता है । टिप्पणी- जैन शास्त्रों में मनुष्यों तथा पशुओं के शरीर को औदारिक शरीर कहा है । औदारिक अर्थात् हड्डी, मांस, रुधिर, चमड़ा आदि बीभत्स (घृणित ) वस्तुओं का पुञ्ज ।
(२५) और जो संवर करने वाला ( संसार से निवृत्त हुआ ) भिक्षु होता है वह सब दुःखों का नाश करके मुक्त श्रथवा महा ऋद्धिमान देव ( इन दोनों में से एक ) होता है ।
टिप्पणी- यहां एक शंका होती है कि मुनि को तो मुक्ति प्राप्ति होती है, गृहस्थ को क्यों नहीं होती ? परन्तु यह बात तो स्पष्ट है कि गृहस्थ जीवन में त्याग-यह एक अपवाद है । जो त्याग गृहस्थावस्था में दुःसाध्य लगता है वही साधु अवस्था में सुसाध्य होता है और वहां उसकी विशेषता भी है। इसीलिये गृहस्थ की अपेक्षा त्यागी भधिक
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