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________________ ३८ उत्तराध्ययन सूत्र टिप्पणी-वस जीव वे है जो चलते फिरते दिखाई देते हैं। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति के जीवों को लो आंखों से स्पष्ट रूप से न दिखाई दें, उन्हें स्थावर जीव कहते हैं यद्यपि आधुनिक वैज्ञानिक शोध से यह बात सर्वमान्य हो गई है कि नल, वायु वनस्पति आदि में सूक्ष्म जीव है। (९) क्रमशः हिंसक, असत्यभापी, मायाचारी, चुगलखोर, शठ और मूर्ख वह शराब और मांस खाता हुआ, ये वस्तुएं उत्तम हैं ऐसा मानता है। (१०) काया और वचनों से मदान्ध बना हुआ तथा धन और स्त्रियों में श्रासक्त बना हुआ वह, जैसे केंचुआ मिट्टी को ' दो प्रकार से इकट्ठी करता है उसी तरह, दो तरह से कर्मरूपी मल को इकट्ठा करता है। टिप्पणी-'दो तरह मे यह इक्ट्ठा करना' इसका आशय, यहाँ शरीर और आत्मा दोनों के अशुद्ध होने से है। शारीर के पतन होने के बाद टसको सुधारने का मार्ग बड़ी कठिनता से मिल भी जाता है किंतु आत्मपतन के उद्धार का मार्ग मिलना तो असंभव जैसा कठिन है। (११) उसके बाद, परिणाम में रोगों द्वारा जर्जरित और उसके कारण अत्यन्त खिन्न हुआ वह जीव हमेशा पश्चाचाप की अग्नि में तपा करता है। और अपने किये हुए दुष्कर्मों को याद कर करके वह परलोक से भी अधिकाधिक डरने लगता है। (१२) "दुराचारियों की जहां गति होती है ऐसे नरकों के स्थानों को मैंने सुना है। वहां कर कर्म करने वालों को असा वेदना होती है।
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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