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विनय श्रुत
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है और जैसे यह पृथ्वी प्राणिमात्र की आधार है वैसे ही वह विनयी शिष्य आचार्यों का आधारभूत होकर रहता है ।
ज्ञानी पुरुष क्या देता है ?
(४६) सच्चे ज्ञानी और शाखज्ञ पूज्य पुरुष जब शिष्य पर प्रसन्न होते हैं तब उसे शास्त्र के गंभीर रहस्य समझाते हैं । (४७) (और) शास्त्रज्ञ शिष्य संदेह रहित होकर कर्म संपत्ति में मन लगाकर स्थितप्रज्ञ होता है और तप श्राचार तथा
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समाधि इनको क्रमशः प्राप्ति करता हुआ दिव्य ज्योति धारण करता है तथा वाद में पाँच व्रतों का पालन करता है । (४८) देव, गंधर्व तथा मनुष्यों द्वारा पूजित वह मुमुक्षु मुनि इस मलिन शरीर को छोड़कर इसी जन्म में सिद्ध हो जाता है अथवा ( दूसरे जन्म में) महान ऋद्धिधारी देव होता है ।
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टिप्पणी- इन तीन श्लोकों में साधक की क्रमिक श्रेणी बताकर उसका फल दिखाया है । विनय अर्थात् विशिष्ट नीति और यह नीति ही धर्म का मूल है । गुरुजन की विनय से सत्संग होता है, तत्व का रहस्य समझ में आता है और रहस्य समझने के बाद विकास पंथ में अग्रसर हुआ जाता है । इसी विकास से देवगति अथवा मोक्षगति प्राप्त होती है ।
ऐसा मैं कहता हूँ
इस तरह 'विनयश्रुत' नामका प्रथम अध्ययन समाप्त हुआ ।