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________________ जीवाजीवविभक्ति ४५१ करना होता है जिसकी विधि आगे लिखी है । उस समय शुभ एवं शांति भाव रखना जरूरी है । i (२५४) (१) कांदर्पी, (२) श्रभियोगी, ( ३ ) किल्बिषिकी, (४) आसुरी आदि अशुभ भावनाएं मृत्यु समय श्राकर जीव को बहुत कष्ट देती हैं और वे सब दुर्गति की ही कारणभूत हैं । (२५५) जो जीव मिथ्यादर्शन ( श्रसत्य प्रेमी ) में लीन, श्रात्मघात करनेवाले अथवा नियाण ( निदान तप की सांसारिक भोगोपभोग की इच्छा ) करते हैं और उक्त तीन प्रकार की भावनाओं में मृत्युप्राप्त होते हैं उन आत्माओं को बोधिलाभ होना बहुत २ दुर्लभ है । टिप्पणी- बोधिलाभ अर्थात् सम्यक्त्व की प्राप्ति । (२५६) जो जीव सम्यग्दर्शन में लीन, निदानरहित और शुकु लेश्याधारी होते हैं और इन्हीं की आराधना करते हुए मृत्यु प्राप्त होते हैं उन जीवो को ( दूसरे जन्मों में भी ) बोधिबीज को बड़ी आसानी से प्राप्ति हो जाती है 1 (२५७) जो जीव मिथ्यादर्शन में लीन, कृष्ण लेश्याधारी और निदान करते हैं और ऐसी भावना में मृत्यु प्राप्त होते हैं ऐसे जीवों को वोधिलाभ होना अति अति दुर्लभ है । . (२५८) जो जीव जिन भगवान के वचनों में अनुरक्त रहकर भावपूर्वक उन वचनों के अनुसार आचरण करता है वह पवित्र ( मिथ्यात्व के मेल से रहित ) एवं संक्लिष्ट ( रागद्वेष के क्लेशरहित ) होकर थोड़े ही समय में इस दुःखद संसार को पार कर जाता है । "
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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