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________________ जीवविभक्ति - ~ ~ ~ A.WNLVANJAL अ) वह सिद्धशिला शंख, अंकरन और मुचकुन्द के फूल के समान अत्यन्त सुन्दर एवं निर्मल है और उस सिद्धशिला से एक योजन की ऊँचाई पर लोक का अंत हो जाता है। २) उस योजन के अंतिम कोस के छठे भाग ( ३३३ धनुष और ३२ अंगुलियों) की ऊँचाई में सिद्ध भगवान विराजमान हैं। (६३) उस मोक्ष में महा भाग्यवन्त सिद्ध भगवान भवप्रपंच से . मुक्त होकर और उत्तम सिद्धगतिको प्राप्त कर लोकाय पर स्थिर हुए हैं। (६४) (सिद्ध होने के पहिले) अन्तिम मनुष्यभव में शरीर की जितनी ऊँचाई होती है उसमें से एक-तृतीयांश छोड़कर दो-तृतीयांश जितनी ऊँचाई सिद्ध जीवों की रहती है। टिप्पणी-सिद्ध होने पर शरीर नहीं रहता किन्तु उस शरीर में व्यास आत्मप्रदेश तो रहते हैं। शरीर का भाग जो पोला है उसके सिवाय के भाग में सब आत्मप्रदेश रहते हैं। आत्मप्रदेश भरूपी है इस कारण सिद्धशिला पर अनन्त सिद्ध होने पर भी उनमें परस्पर घर्षण नहीं होता है। (६५) (वह मुक्ति स्थान ) एक एक जीव की अपेक्षा से सादि (आदि सहित) एवं अनंत (अंत रहित ) है किन्तु । समस्त सिद्ध समुदाय की अपेक्षा से वह आदि एवं अंत दोनों से रहित है। (६६) वे सिद्ध जीव अरूपी हैं और केवलज्ञान तथा केवलदर्शन । उनका लक्षण है। वे उपमा रहित अतुल सुख का उप भोग करते हैं।
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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