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________________ प्रमादस्थान ३८३ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~~~ ~- A AL (७९) अत्यन्त स्वार्थ में डूबाहुआ वह बाल और मलिन जीव स्पर्श में लुब्ध होकर अनेक प्रकार के चराचर जीवों की हिंसा करता है और भिन्न २ प्रकार से उनको परिताप तथा पीड़ा देता है। (८०) फिर भी स्पर्श की आसक्ति तथा मूळ से मनोज्ञ स्पर्श को प्राप्त करने में, उसके रक्षण करने में, उसके वियोग में अथवा उसके विनाश में उस जीव को सुख कहां मिल सकता है ? उसका उपभोग करते समय भी वह तो अतृप्त ही रहता है। (८१) जब स्पर्श को भोगते हुए भी वह अतृप्त ही रहता है तब उसके परिग्रह में उसकी आसक्ति और भी बढ़ जाती है और अति आसक्त उस जीव को कभी सन्तोष नहीं होता और असन्तोष से लोभाकृष्ट तथा दुःखी वह जीव दूसरों के नहीं दिये हुए पदार्थों की भी चोरी कर लेता है। (८२) इस प्रकार अदत्त का ग्रहण करने वाला, तृष्णा द्वारा परा. जित और मनोज्ञ स्पर्श प्राप्त करने तथा भोगने में असन्तुष्ट प्राणी लोभ के वशीभूत हो कपट तथा असत्यादि दोषों का सहारा लेता है और इससे वह दुःख से मुक्त नहीं होता। (८३) असत्य बोलने के पहिले, उसके बाद अथवा असत्य बोलते समय भी वह दुष्ट अन्तःकरणवाला दुःखी जीवात्मा इस प्रकार अदत्त वस्तुओं को ग्रहण करके भी स्पर्श में तो अतृप्त ही रहने से और भी दुःखी तथा असहाय बन जाता है।
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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