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________________ ३८१ (६७) फिर भी रस की आसक्ति तथा मूर्छा से मनोज्ञ रस को प्राप्त करने में, उसके रक्षण करने में, उसके वियोग में, अथवा उसके विनाश में उस जीव को सुख कहां मिलता है ? उसका उपभोग करते समय भी वह तो अतृप्त ही रहता है। (६८) जब रस भोगते हुए भी वह अतृप्त हो रहता है तब उसके परिग्रह में उसकी आसक्ति और भी बढ़ जाती है और प्रमादस्थान ति श्रासक्त उस जीव को कभी सन्तोष नहीं होता और असन्तोष से लोभाकृष्ट तथा दुःखी वह दूसरो के रसपूर्ण पदार्थों को बिना दिये ही ग्रहण करने लगता है ! (६९) इस प्रकार अदत्त का ग्रहण करनेवाला, तृष्णा द्वारा पराजित और रस प्राप्त करने तथा भोगने में असन्तुष्ट प्राणी लोभ के वशीभूत होकर कपट तथा असत्यादि दोषों का सहारा लेता है और इससे वह जीव दुःख से मुक्त नहीं होता । ' (७०) सत्य बोलने के पहिले, उसके बाद अथवा असत्य वाक्य बोलते समय भी वह दुष्ट अन्तःकरणवाला दुःखी जीवात्मा इस प्रकार अदत्त वस्तुओं को ग्रहण करता हुआ और रस में अतृप्त रह २ कर दुःखी एवं असहायी बन जाता है । (७१) इस तरह रस में अनुरक्त हुए जीव को थोड़ा सा भी सुख कहां से मिल सकता है ? जिस रस को प्राप्त नहीं करने में उसने कष्ट भोगा उस रस के उपभोग में भी वह तो अत्यन्त क्लेश तथा दुःख ही पाता है । ( ७२ ) इस प्रकार अमनोज्ञ रस में द्वेष करनेवाला वह जीव दुःखों की परम्परा खड़ी कर लेता है और द्वेषपूर्ण चित्त द्वारा
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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