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स्वलुंकीय
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कई एक साताशील ( शरीरसुख के प्रेमी ) हो गये हैं और कोई २ प्रचंड क्रोधी हैं ।
(१०) कोई २ भिक्षा में आलसी बन गये हैं, कोई २ अहंकारी शिष्य भिक्षा मांगने में अपने अपमान की संभावना देख भीरु होकर एक ही स्थान पर बैठे रहते हैं । कोई २ मदोन्मत्त शिष्य ऐसे हैं कि जब २ मैं प्रयोजन पूर्वक ( संयम मार्ग के योग्य ) शिक्षा देता हूँ ।
(११) तो बीच ही में सामने जवाब देते हैं और उल्टा मुझे ही दोष देते हैं और कई एक तो आचार्यों के वचनों (आज्ञाओं) के वारम्वार विरुद्ध जाते हैं ।
( १२ ) ( कई एक शिष्य भिक्षार्थ भेजे जाने पर भी जाते नहीं है अथवा ऐसे २ बहाने करते हैं कि) 'वह श्राविका तो मुझे 'पहिचानती ही नहीं है, वह मुझे भिक्षा नहीं देगी', 'वह घर पर नहीं होगी तो अच्छा तो यही है कि आप किसी दूसरे साधु को वहां भेजे " । कोई २ तो उद्धत होकर ऐसे वचन बोलते हैं कि 'क्या मैं हो अकेला बचा हूँ, दूसरा कोई नहीं है ?' इत्यादि प्रकार से गुरु को उल्टा उत्तर देते हैं और भिक्षार्थ नहीं जाते ।
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(१३) अथवा कोई २ शिष्य जिस प्रयोजन से भेजे जाते हैं वह कार्य करके नहीं लाते और झूठ बोलते हैं। या तो कार्य को कठिन बताकर इधर उधर घूमने में समय बिता देते हैं अथवा काम भी यदि करते हैं तो बेगार सी भुगतते हैं और कहने पर क्रोध से भौंहे चढ़ाकर मुंह विगाड़ते हैं ।