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________________ १७६ उत्तराध्ययन सूत्र - - vvvvv vvhow प्राप्त होती है परन्तु आदर्श साध ; उनका कमी दुरुपयोग नहीं करते किन्तु फिर भी महाराजा को डर लगना स्वाभाविक था क्योंकि उनका हृदय स्वयं दोष स्वीकार कर रहा था। समाधि टूटने पर साधने अपनी आंखें खोली । सामने अपनी हाथ यौधे हुए भयभीत राजा को खड़ा देख कर वे बोले । (११) हे राजन् ! तुम अभय होवो! और अव से तू भी ( अपने से क्षुद) जीवों के प्रति अभय ( दान का ) दाता हो जा । अनित्य इस जीवलोक (संसार ) मे हिसा के कार्य में क्यों यासक्त होता है ? टिप्पणी-जैसे त मेरे भय से मुक्त हुभा वैसे ही त भी भाज से तेरे भय से सब नोधों को मुक्त कर दे। अभयदान के समान कोई दूसरा दान नहीं है। क्षणिक इस मनुष्य जीवन में ऐसी घोर हिंसा के काम क्यों करते हो? . (१२) यदि राजपाट, महल मकान, बागबगीचा, कुटुम्ब कवीला और शरीर को छोड़ कर तुझे आगे पीछे कभी न कभी कर्मवशात् जाना ही पड़ेगा तो अनित्य इस संसार में राज्य पर भी आसक्त क्यों होता है ? (१३) जिसपर तू मोहित हो रहा है वह जीवन तथा रूप ये तो बिजली के कोंदा (चमकारा.) के समान एक क्षण स्थायी है। इसलिये हे राजन् ! इस लोक की चिंता छोड़ कर परलोक की कुछ चिंता कर । भविष्य परिणाम को तू क्यों नहीं सोचता ? (१४) स्त्री, पुत्र, मित्र अथवा वन्धवांधव केवल जिन्दगी में ही साथ देते हैं। मरने पर कोई साथ नहीं देता।
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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