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उत्तराध्ययन सूत्र
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पंडित की तुलना करके, जो अपनी मूल मूड़ी को भी
कायम रखता है वह मनुष्य-योनि पाता है। (२०) ऐसी भिन्न भिन्न प्रकार की शिक्षाओं द्वारा जो पुरुप गृहस्था
श्रम में रहकर भी सदाचारी रहता है वह अवश्यमेव सौम्य मनुष्य योनि को प्राप्त होता है क्योंकि प्राणियों को कर्म
फल तो भोगना ही पड़ता है। (२१) जो महानानी हैं वे तो अपनी मृड़ी को भी लांधकर (मनु
ज्य धर्म से भी आगे बढ़कर ) शीलवान तथा विशेष सदा--
चारी बनकर देवत्व प्राप्त करते हैं। टिप्पणी-यदि मनुष्य, मनुष्य धर्म को पालन करता है तो यह तो
उसका सामान्य वर्तव्य है; वहां तक तो उसने अपनी मृल मूड़ी, ही कायम रक्खी ऐसा समझना चाहिये किन्तु मनुप्य धर्म से भी आगे बढ़ जाय अर्थात् विश्वमार्ग में प्रवेश करे तभी कुछ उसने विशे--
पता की ऐसा कहा जा सकता है। (२२) इस प्रकार भिक्षु अदीनता (दीनहीनता, तेजस्विता) और
अनासक्ति को जानकर (विचार कर ) क्यों नहीं इसे जीते (प्राप्त करे ) और इन्हें प्राप्त करके क्यों नहीं शांति संवेदन ( अनुभव ) करे ? ( अवश्य करे) दाभड़े की नोक पर स्थित अत्यन्त क्षुद्र बिंदु की महासागर के साथ कैसे तुलना की जाय ? उसी तरह देवों के भोगो के सामने मनुष्य भव के भोग अत्यन्त क्षुद्र हैं ऐसा
समझ लेना चाहिये। (२४) यदि मनुष्यभव के भोग दाभ की नोक पर स्थित जलविंदु - के समान हैं तो दिनप्रतिदिन होने वाली इस छोटी सी.