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________________ अध्याग *SHASTRIES RIPRASE*6*** 2 अक्षीणमहानस ऋद्धिके धारक कहे जाते हैं । अक्षीणमहालय ऋद्धिप्राप्ति मुनिगणं जहां निवास करते है वहांपर यदि समस्त संसारके देव मनुष्य और तिथंच भी आकर बैठ जाय तो वे भी एक दूसरेको किसी प्रकारका कष्ट विना पहुंचाये सुखसे बैठ सकते हैं ऐसी विचित्र सामर्थ्य के धारक मुनिगण अक्षीणमहालय ऋद्धिके धारक कहे जाते हैं। इस प्रकार ऊपर जो आठ प्रकारके ऋद्धिधारी मुनियोंका उल्लेख किया गया था उनका यहां विस्तारसे वर्णन कर दिया गया। म्लेच्छा द्विविधा अंतरबीपजाः कर्मभूमिजाश्चेति ॥ ४॥ .. अंतर्वीपज और कर्मभूमिजके भेदसे म्लेच्छ दो प्रकारके हैं। जो म्लेच्छ आगे कहे जानेवाले द्वीपोंमें हों वे अतीपज म्लेच्छ हैं और जो कर्मभूमिमें उत्पन्न होनेवाले हों वे कर्मभूमिज म्लेच्छ हैं।' लवणोदधि समुद्रकी आठो दिशाओंमें आठ अंतर दोप हैं। उनके अंतरालोंमें भी आठ हैं तथा हिमवान पर्वत शिखरी पर्वत और दोनों विजायाधोंके अतरमें आठ हैं उनमें जो द्वीप दिशाओं में हैं वे, द्वापकी वेदिकासे तिर्यक् और पांचसो योजनके वाद जाकर हैं। विदिशा और अंतरालोंके द्वीप पांचसौ । पचास योजन तिर्यक् जानेके वाद हैं। तथा जो द्वीप हिमवान पर्वत शिखरी पर्वत और दोनो विजया२ घोंके अंतमें हैं वे छहसौ योजन जानेके वाद हैं। जो द्वीप दिशाओं में हैं वे सौ सौ योजन प्रमाण विस्तीर्ण हैं। जो विदिशा और अंतरालोंमें हैं वे पचास पचास योजन प्रमाण विस्तीर्ण हैं तथा जो द्वीप उपर्युक्त हिमवान आदि पर्वतोंके अंत भागमें . कहे गये हैं वे पचीस पच्चीस योजन विस्तीर्ण हैं। जो म्लेच्छ पूर्वदिशामें रहनेवाले हैं वे एक टांगवाले हैं । पश्चिम दिशामें पूछवाले हैं। उत्तर
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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