SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 934
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जगह ऋजुगति सरलरूप से गमन करनेवाली हैं। ये चौदहों नदियां आधे योजन चौडे, नदियोंके समान लंबे, दोनों पसवाडों में रहनेवाले तथा हर एक आधे योजन ऊंची पांचसे धनुष चौडी और वनोंके समान लंबी दो दो पद्मवेदिकाओंसे व्याप्त दो दो वनखंडोंसे शोभित हैं अर्थात् उन नदियों के दोनों किनारोंमें आधे आधे योजन चौडे और नदियोंके समान लंबे वनखंड हैं और दोनों वनखंडों में प्रत्येक वन आघे योजन ऊंची और पाचौ धनुष चौडी तथा वनोंके बराबर लंबी चली गई एक एक पद्मवरवेदिका से व्याप्त हैं । अर्थात् नदियोंके किनारे दो वेदिका और दो वन नदियों के साथ चले गये हैं । ऊपर कही गईं नदियोंकी परिवार स्वरूप नदियों के प्रतिपादन के लिये सूत्रकार सूत्र कहते हैंचतुर्दशन दसहस्रपरिवृता गंगासिंध्वादयो नद्यः ॥ २३ ॥ गंगा सिंधू आदि नदियां चौदह चौदह हजार नदियों के परिवार सहित हैं। शंकागंगासिंध्वाद्यग्रहणं प्रकरणादिति चेन्नानंतरग्रहणप्रसंगात् ॥ १ ॥ ऊपर गंगा सिंधू आदिका वर्णन किया गया है इसलिये प्रकरणकी सामर्थ्य से इस सूत्र में गंगा सिंधू आदिकी अनुवृत्ति सिद्ध थी फिर गंगासिंधादि शब्दका क्यों ग्रहण किया गया ? सो ठीक नहीं | 'अनंतरस्य विधिर्वा भवति प्रतिषेधो वा' अर्थात् जो कुछ भी विधान और प्रतिषेध होता है वह अनंतर - अव्यवहित पूर्वका ही होता है । यहांपर बिलकुल समीपमें अपरगा - पश्चिम समुद्र में जानेवाली नदियों का ही उल्लेख किया गया है इसलिये उन्हींकी इस सूत्र में अनुवृत्ति आवेगी और पश्चिम समुद्र में प्रविष्ट होनेवाली नदियां चौदह चौदह हजार नदियों के परिवारसहित हैं यही अनिष्ट अर्थ होगा किंतु गंगा सिंधू आदि नदियां चौदह चौदह हजार नदियोंके परिवारसहित हैं यह अर्थ न होगा अध्याव ३ ११०
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy