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अपरतोरणद्वाराद्विनिर्गता सिंधूः ॥ २ ॥
पद्मसरोवर के पश्चिम, तोरण द्वारसे सिंधू नदीका उदय हुआ है। वह पांचसौ योजन जाकर अपनी तरंगरूप भुजाओं से सिंधू नामक कूटको स्पर्श कर एवं उपर्युक्त रीति से गंगा नदीके प्रमाण होकर सिंधू जाकर पडी है । तथा तमिश्रा नामक गुफामें होकर विजयार्धको तय कर प्रभास तीर्थसे पश्चिम समुद्र में जाकर मिली है।
गंगा कुंडके द्वीपका जो प्रासाद है उसमें गंगा देवीका निवास स्थान है और सिंधू कुंडके द्वीपका जो प्रासाद है उसमें सिंधू देवी निवास करती है । हिमवान पर्वतके ऊपर पूर्व पश्चिम कुछ भाग छोडकर गंगा और सिंधू नदियों के मध्यभाग में दो कूट ( खंड पर्वत ) हैं जो कि पद्म-कमल के आकार हैं । वैडूर्यमणिमयी नालोंके धारक हैं । जलके ऊपर एक कोश ऊंत्र दो कोश लंबे चौडे, लोहिताक्षमणिमयी और आधे कोश लंबे पत्रोंके धारक, तपे सुवर्णके समान केसर से शोभायमान तथा सूर्यकांत मणिके बने हुए एक कोश लंबी कर्णिका के धारक हैं। उन कर्णिकाओंके मध्यभागमें रत्नमयी एक एक कूट बना हुआ है। प्रत्येक कूटमें एक एक प्रासाद है। पूर्व की ओरके कूटके प्रासाद में वला नामकी देवी रहती है उसकी एक पल्यकी आयु है। पश्चिम दिशा की ओर के कूट के प्रासादमें लवणा नामकी देवी रहती है और उसकी भी एक पल्यकी आयु है ।
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डेढवला प्रमाण प्रवाह बन वर वही है । पश्रात् पूर्व दिशा में बढती बढती साडे बासठ योजन चौड़ाई और सवा योजन गहराई लिये हुए दरवाजेसे लवणोदधि समुद्रमें जाकर मिल गई है। यह श्रीत्रिलोकसारका सिद्धांत है। इन नदियोंकी विशेष व्याख्या श्री त्रिलो. कसार, सिद्धातसार और हरिवशपुया में की गई है सो वहांसे जानना चहिये ।
अध्याय
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