SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 878
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योजन के उन्नीस भागों में दो भाग प्रमाण है । इसकी प्रत्यंचा नील पर्वत के समीप त्रेपन हजार योजन है तथा साठ हजार चारसौ अठारह योजन और एक योजनके उन्नोस भागों में किंचित् अधिक बारह भाग प्रमाण इसका धनुष है । इस उत्तरकुरु भोगभूमि में सीता नदी के पूर्व की ओर जंबूवृक्ष है । उसकी उत्तरदिशा की शाखापर भगवान अर्हतका मंदिर है जो कि एक कोश लंबा आधा कोश चौडा और कुछ कम एक कोश ऊंचा है । पूर्व दिशा की शाखापर एक महामनोज्ञ प्रासाद विद्यमान है जो कि भगवान अर्हतके मंदिर के ही समान लम्बा चौडा और ऊंचा है। इस प्रासादमें जंबूद्वीपका स्वामी व्यंतर जाति के देवोंका अधिपति अनावृत नामका देव रहता है तथा दक्षिण और उत्तर दिशा की शाखाओं पर भी दो प्रासाद हैं और उनमें अनावृत देवकी मदामनोहर शय्यायें विद्यमान हैं । X इस जंबूवृक्ष की पूर्व - उत्तर (वायव्य) दिशा में और पश्चिम-उत्तर (ईशान) दिशा में चार हजार जंबूवृक्ष हैं और उनमें अनावृत देवके (समान ही ) सामानिक जाति के देव निवास करते हैं। दक्षिण - पूर्व दिशामें बत्तीस हजार जंबूवृक्ष हैं और उनमें अनावृतदेवकी अंतरंग सभा के देव निवास करते हैं । दक्षिण दिशामें चालीस हजार जंबूवृक्ष हैं और उनमें मध्यम सभा के देवगण निवास करते हैं । दक्षिण पश्चिम दिशामें अडतालीस हजार जंबूवृक्ष हैं और उनमें वाह्य सभा के देव रहते हैं । पश्चिम दिशामें सात जंबूवृक्ष और उनमें अनावृत देवकी सातप्रकार की सेना के महत्तर रहते हैं । चार जंबूवृक्ष और भी हैं एवं उसमें अपने अपने दासी दास आदि परिवारोंके साथ अनावृत देवकी चार पट्टरानी निवास करती हैं । इनके सिवाय पूर्व दक्षिण पश्चिम और उत्तर इन चारो दिशाओं में सोलह हजार जंबूवृक्ष और हैं एवं उनमें अनावृत মাওলা শভলভলও अध्याय ३ ८५४
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy