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भाषा
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ज्ञान वी आत्मा आदि पदार्थों से संतान पदार्थ भिन्न है। यदि यह कहा जायगा कि संबंध विशेषसे वैसा व्यवहार हो जायगा, कोई दोष नहीं आ सकता ? सो भी ठीक नहीं। वह संबंध कौनसा होगा ? जिस समय यह विचार किया जायगा उससमय कोई संबंध ही नहीं सिद्ध हो सकता । तथा वही संतान अपने ज्ञानादि पदार्थों से यदि अभिन्न मानी जायगी तो ज्ञान आदि और संतान दोनों एक ही हो जायगे फिर ज्ञानके नाश होते ही संतानका भी नाश होगा। इस रूपसे संतान पदार्थकी कल्पना व्यर्थ ) ही होगी। इसप्रकार यह बात सिद्ध हो चुकी है कि ज्ञान वैराग्यका संभव न सर्वथा नित्य पक्षमें हो। सकता है और न सर्वथा अनित्य पक्षमें, किंतु कथंचित् नित्यानित्य पक्षमें ही होगा । कथंचित्-नित्या| नित्य पक्ष नैयायिक आदि स्वीकार नहीं करते इसलिये ज्ञान वैराग्यको मोक्षका कारण मानना सर्वथा
अयुक्त है। इसप्रकार तत्वज्ञानमात्र मोक्षका कारण नहीं हो सकता यह युक्तिपूर्वक कह दिया गया अब । 'विपर्ययसे बंध होता है। यह जो वादीका कहना है उसपर विचार किया जाता है।
विपर्ययाभावः प्रागनुपलब्धरुपलब्धौ वा बंधाभावः ॥ १९॥ | यह बात लोकमें प्रसिद्ध है कि जिस पुरुषको यह जानकारी है कि "जिसके हाथ पैर मस्तक |
आदि विशेष हों वह पुरुष और जिसमें टेडापन खोलार आदि विशेष हों वह स्थाणु कहा जाता है" वह पुरुष जिससमय अपनेसे दूर प्रदेशमें रहनेवाले स्थाणुको देखता है और विशेष अंधकारसे वा किसी चीजके व्यवधानसे वा इंद्रियोंकी अशक्तिसे उसके टेडापन वा कोटर आदि विशेषोंका निश्चय नहीं कर सकता किंतु केवल सामान्य धर्म उचाई देखता है उसे यह पुरुष है' यह एककोटीनिश्चयात्मक विपरीत ज्ञान होता है किंतु जो पुरुष पृथ्वीके भीतर उत्पन्न हुआ है और जिसने स्थाणु और पुरुषके विशेषोंको
२ किसी गुप्त प्रदेशमें उत्पन्न होकर वहींपर जिसने वृद्धि पाई है। बाह्य प्रदेशोंका जिसे परिज्ञान नहीं है।
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