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________________ अध्याय ३४ व्यवहार होता है। यहाँपर जिस प्रकार रोम और पेटके विद्यमान रहते भी उनकी अविवक्षा मान कर है अलोमकांडिका और अनुदरा कन्या ऐसे शब्दोंका प्रयोग होता है उसी प्रकार विद्यमान भी रत्नप्रभा आदिके अंतरकी अविवक्षा है इसलिए रत्नप्रभा आदि भूमियां एकके नीचे दूसरी, दुसरीके नीचे तीसरी इत्यादि क्रमसे नीचे नीचे व्यवस्थित हैं इस अर्थके द्योतन करनेकेलिए अधोऽध शब्दका प्रयोग निर्वाध है। अथवा ___ तुल्यजातीयेनाव्यवधानं सामीप्यमिति वा ॥११॥ ____ ऊपर जो रत्नप्रभा आदि भूमियोंका अंतर बतलाया गया है वह पूर्व और उत्तर भागके मध्यवर्ती । होनेसे नरकोंके आपसमें है इसी तात्पर्यके प्रगट करनकलिये अधोधः, शब्दका प्रयोग किया गया है । , अर्थात् एक पृथ्वीके नीचे दूसरी और दूसरीके नीचे तीसरी इस प्रकार इन सातों पृथिवियोंके अंतरालमें और कोई अंतराल नहीं है इसलिये उनका सामीप्य है। __पृथुतरा इति केषांचित् पाठः ॥१२॥ किसी किसीने 'सप्ताधोऽधः' इसके बाद पृथुतरा' यह भी पाठ माना है और सातो नरक भूमियां नीचे नीचे एक दूसरीकी अपेक्षा विशाल हैं, यह पृथुतर शब्दके उल्लेखका तात्पर्य प्रगट किया गया है। । यहां पर यह शंका की जायाकि जहांपर कुछ प्रकर्षता होती है वहीं तरप और तमप्प्रत्ययोंका प्रयोग किया है जाता है । रत्नप्रभा आदि भूमियोंमें तो कोई प्रकर्षता जान नहीं पड़ती इसलिये पृथुतराः यहाँपर तरप् है शब्दका प्रयोग निरर्थक है ! सो ठीक नहीं, दो भूमियाँका मिलान करनेपर उनमें एक बड़ी है दूसरी छोटी ७ है इसप्रकार एक दूसरेकी अपेक्षा विशेष महानपना बतलाने के लिये तरशब्दका प्रयोग किया गया है। %ARNERG ७८२, RECARBA
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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