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________________ अध्याय HOURUGREESHARE SANSKANCIENCESCRECIPE र निवृत्ति के लिए सूत्रमें सप्त शब्दका ग्रहण किया गया है। यदि यहॉपर यह कहा जाय कि-बहुतसे है शास्रकारोंने अनंत लोक घातुओंमें अनंते पृथिवीके प्रस्तार मान रक्खे हैं उनका परिहार कैसे किया है 2 जायगा ? उसका समाधान यह है कि अनेकांतवादमें कर्म, उनका फल और उनके संबंध आदिका ॐ युक्तिपूर्वक निरूपण किया गया है तथा उस अनेकांतवाद वा कर्म फल आदिका भगवान अहंतके आगममें प्रतिपादन है सिवाय उसके अन्य किसी शास्त्रमें उसका उल्लेख नहीं इसलिए भगवान अहंतका आगम ही प्रमाण है अन्य कोई शास्त्र प्रमाणीक नहीं माना जा सकता। इसलिए भगवान अहंतके हूँ आगममें जो नरक भूमियां और उनके प्रतर माने गये हैं वे ही युक्तियुक्त हैं, अन्य शास्त्रोंमें माने हुये हूँ मिथ्या हैं। अधोधोवचनं तिर्यक्प्रचयनिवृत्त्यर्थं ॥९॥ रत्नप्रभाके नीचे शर्कराप्रभा, शर्कराप्रभाके नीचे वालुकाप्रभा इत्यादि रूपसे एक भूमि दूसरी भूमिके नीचे नीचे हैं किंतु रत्नप्रभाके बराबरमें तिरछी ओर शर्कराप्रभा हो और शर्कराप्रभाके बराबरमें तिरछी ओर वालुकाप्रभा हो इत्यादि प्रकारसे तिरछे रूपसे उनकी स्थिति नहीं है यह बात बतलानेके 5 लिये सूत्रमें अधोऽधः शब्दका उल्लेख किया गया है । अर्थात् जिस प्रकार मध्यलोकमें नगर और ग्राम, १-रत्नप्रमादिमा भूमिस्तधोधः शकंराप्रमा। वालुकादिप्रमातोऽघस्नतः पंकममा मता ॥१८॥ ततो धुमप्रभाघस्ताचतोऽधस्तात्तपःप्रभा। तमस्तमःममातोपो भुवामित्वं व्यवस्थितिः ॥१८१॥ मध्यलोकके नीचे सबसे पहिले रत्नप्रभा भूमि है उसके नीचे शर्कराममा, उपके नीचे वालुकाप्रभा, उसके नीचे पंकप्रभा, उसके नीचे घूमप्रमा, उडके नीचे तपःप्रभा और उसके नीचे महातम:प्रभा है। तत्वार्थसार पृष्ठ १०१। IERSPSC
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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