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________________ CARECHESTRONIC उत्कृष्टकाल अपर्याप्तकका अंतर्मुहूर्तप्रमाण घाटि तेतीस सागर प्रमाण है । तथा उत्तर वैकियिकका जघन्य और उत्कृष्ट दोनों प्रकारका काल अंतर्मुहूर्तप्रमाण है इसीप्रकार नारकियोंका भी समझ लेना अध्या है चाहिए। यदि यहाँपर यह शंका की जाय कि तीर्थकरका जन्म और नंदीश्वरके चैत्यालय आदिकी पूजार्थ देवतागण जाते हैं और वहांपर उन्हें तु अधिक समय तक रहना पडता है तथा उससमय उनका उत्तर वैक्रियिक शरीर ही रहता है क्योंकि मूल वैक्रियिक शरीर उनका कहीं भी नहीं जाता। यदि उत्तर वैक्रियिकका काल अंतर्मुहूर्तप्रमाण माना 181 जायगा तो अधिकसमयसाध्य तीर्थकरके जन्म आदिमें देवोंका आना न बन सकेगा ? सो ठीक नहीं। यद्यपि उससमय उनका उचर वैक्रियिक शरीर ही होता है परंतु फिर फिरसे उनकी विक्रियाकी लडी P बंधी रहती है वह टूटती नहीं इसलिए अधिक समयसाध्य कार्यके करने में भी किसी प्रकार की बाधा । नहीं होती। आहारक शरीरका जघन्य और उत्कृष्ट दोनों प्रकारका काल अंतर्मुहूर्तप्रमाण है। योग कमांका संतानकी अपेक्षा अभव्योंके अनादि अनंतकाल है और जो भव्य ॥६॥ अनंतकाल के बाद भी मोक्ष न प्राप्त कर सकेंगे उनके भी अनादि अनंत काल है किंतु जो भव्य मोक्ष | प्राप्त करेंगे उनकी अपेक्षा अनादि सांतकाल है तथा एक निषेककी अपेक्षा एक समयमात्र काल है किंतु पृथकरूपसे तैजसका काल छ्यासठि सागर प्रमाण माना गया है और कार्मण शरीरका संचर कोडा, कोडी प्रमाणकाल है । इसप्रकार यह कालके भेदसे औदारिक आदि शरीरोंका भेद है। अंतरका अर्थ | - विरहकाल है। एक जीवकी अपेक्षा तो अंतरके भेदसे औदारिक आदि पांचोंके भेद आगे कहे जायगे।। हो भनेक जीवोंकी अपेक्षा इसप्रकार है १-मोहनीय कर्मकी स्थिति सत्तर कोडाकोडी सागर प्रमाण मानी है उसकी अपेक्षा यह कथन है । 'सप्ततिर्मोहनीयस्य' GRAMSASARARIANSWARA ९५
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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