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________________ अध्यार त०रा० मापा NAAMKABALBAREGISGARDASTISGMEACHER सूत्रमें जो मिश्र ग्रहण है वह सचित्ताचिच शीतोष्ण और संवृत्तविवृत इन उभयस्वरूपं युगलों के ग्रहण करनेकेलिये है। चशब्दः प्रत्यकसमुच्चयार्थः ॥६॥ न चांतरेणापि तत्पतीतेः ॥ ७॥ ___'मिश्राश्च' यहांपर जो चशब्द है वह सचिच आदि प्रत्येकके समुच्चयके लिये है अत एव 'सचिच शीत संवृत और अचित्त उष्ण विवृत और मिश्र ये प्रत्येक योनि है' यह अर्थ होता है यदि चशब्दका उल्लेख नहीं किया जाता तो मिश्र, सचिच आदिका ही विशेषण होता और उससे जिस समय सचित्त है। शीत संवृत और अचित्त उष्ण विवृत आपसमें मिल जाते हैं उसीसमय योनियां कहे जाते हैं यह विरुद्ध | अर्थ हो जाता परंतु चशब्दके करनेपर सचित्त आदि प्रत्येक भी योनि हैं और आपसमें मिले हुये भी हैं यह स्पष्ट आगमानुकूल अर्थ उपलब्ध होता है इसलिये चशब्दका उल्लेख वहां सार्थक है। यदि यहां पर यह शंका की जाय कि-- 'पृथिव्यतेजोवायुः' यहांपर च शब्दके न रहनेपर भी जिसप्रकार पृथिवी अप तेज और वाय इस-18 ६ प्रकार समुच्चयरूप अर्थ होता है उसीप्रकार सचिच आदिमें भी समुच्चयरूप अर्थ बिना चशब्दके हो सकता है फिर चग्रहण करना निरर्थक है ? सो ठीक नहीं । यदि चशब्दका उल्लेख न किया जायगा तो | मिश्र, सचिच आदिका विशेषण होगा तब जिससमय सचिव आदि आपसमें मिलेंगे उससमय योनि कहे जायगे किंतु भिन्न भिन्न नहीं कहे जायगे यह विपरीत अर्थ ही सूत्रका मानना पडेना इसलिये चशब्दका ग्रहण निरर्थक नहीं। यदि फिर भी यह कहा जाय कि चशब्द न भी कहा जाय तथापि || उसका विशेषण स्वरूप अर्थ न लेकर समुच्चय अर्थ ही लिया जायगा इसलिये विशेष प्रयोजन न होनेसे || चशब्दका उल्लेख करना व्यर्थ ही है ? इसका समाधान सूत्रकार करते हैं-- CALCUREMORIAGNOSPEECEBOCHEMLATE
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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