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________________ मध्याय स०रा० भाषा ७८५ CAMERICAUGHOUGHCOORDABADISEX daungana | है इसलिये 'विग्रहगति' यहाँपर चतुर्थी समासमें अरुचि प्रकटकर सर्व सम्मत तृतीया समासका वाति|| ककारने उल्लेख किया है। कर्मेति सर्वशरीरप्ररोहणसमर्थ कार्मणं ॥ ४॥ योग आत्मप्रदेशपरिस्पंदः॥५॥ कर्मनिमित्तो योगः कर्मयोगः ॥६॥ ___ समस्त शरीरोंकी उत्पचिों कारण कार्माण शरीर है इसलिये सूत्रमें जो कर्म शब्द है उसका अर्थ है यहां कार्माण शरीर लिया गया है। कायवर्गणा भाषावर्गणा आदिके निमिचसे जो आत्माके प्रदेशोंके | अंदर हलन चलन होना है उसका नाम योग है। यह योग विग्रह गतिमें कार्माणशरीरके द्वारा होता ना है। उसी योगके द्वारा विग्रह गतिमें आत्माके कर्मोंका आदान तथा मनरहित भी उस आत्माकी | नवीन शरीर धारण करनेके लिये गति ये दोनों कार्य होते हैं ॥२५॥ वास्तविक नहीं किंतु पुद्गलके परमाणुओंके संबंधसे काल्पनिक ऐसे आकाशके प्रदेशोंमें रहने || वाले जीव और पुद्गल जिससमय एक प्रदेशसे दूसरे प्रदेशमें जानेकेलिये उद्यत होते हैं उससमय वे ||६|| र प्रदेशोंके क्रमसे गमन करते हैं कि प्रदेशोंके अक्रमसे ? इसबातके निश्चयार्थ सूत्रकार कहते हैं १जीवस्य विग्रहगतो कर्मयोग जिनेश्वराः । माहर्देशांतरप्राप्तिकर्मग्रहण कारणं ॥ ९७।। योगोंकी चंचलता हुए विना शरीरसंबंधी कुछ भी हीनाधिकता नहीं होने पाती इसलिये विग्रहगतिमें मी कोई योग होना चाहिये। विग्रहगतिमें कर्मादान-कर्मबंधका कार्य और नवीन शरीर धारण करना कार्य ये दो कार्य होते हैं जो कि किसी योगकी अपेक्षा रखते हैं। दूसरा कोई योग वहाँ हो नहीं सकता इसलिये उक्त दोनों कार्योंका सापक कार्माण योग ही है ऐसा भगवान जिनेश्वरने कहा है कर्मोंके पिढका नाम कार्माण शरीर है इसीका अवलंबन लेकर आस्मा वहां उक्त दोनों कार्य करता है । तत्वार्थसार। BARDASRAJMERECROREBAR-SA- STATESCHEMANSAR
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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