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________________ POPURISKETBORROR PRERASHANTABASALAUCRUAREERBAHEGAONSCH-SCREE भीतर हैं वा मूर्छित वा सोए हुये हैं वे भी हित अहितकी परीक्षासे शून्य हैं इसलिए वे भी सही न कहे है जायगे किंतु समनस्क पदके उल्लेख रहनेपर तो जो मनसहित हैं वे संज्ञी हैं यह अर्थ होगा। गर्भस्थ * आदि जीव भी मनसहित हैं इसलिए वे भी निर्वाधरूपसे संज्ञी कहे जायगे अतः समनस्क शब्दका 3 उल्लेख सार्थक है ॥२४॥ यदि संसारी जीवोंके हितकी प्राप्ति और अहितका परिहार मनके ही दारा होना माना जायगा • तोजो आत्मा अपने पूर्व शरीरको छोडकर नवीन शरीरके पानेकेलिए उद्यत है अर्थात् विग्रहगतिमें हूँ विद्यमान है वहांपर तो मनका संबंध है नहीं फिर वहांपर बुद्धिपूर्वक गमनक्रिया कैसे होगी । इसकाई उत्तर स्वरूप सूत्रकार सूत्र कहते हैं-विग्रहगतावित्यादि अथवा इस सूत्रकी उत्थानिका इसप्रकार हूँ भी है मनवाले समनस्क जीव विचारपूर्वक ही कार्य करते हैं यदि यही सिद्धांत सुदृढ है तब जिससमय आत्मा पूर्व शरीरको छोडकर दूसरे नवीन शरीरके पानेकी अभिलाषासे उपपाद क्षेत्रकी ओर अभिमुख हो प्रवृत्चि करता है उससमय उसके मन तो माना नहीं गया फिर वहांपर बुद्धिपूर्वक उसकी गमनक्रिया ) ए कैसे है ? सूत्रकार इस बातका समाधान देते हुए सूत्र कहते हैं विग्रहगतौ कर्मयोगः॥२५॥ नवीन शरीर धारण करनेकेलिए जो गमन किया जाता है उसका नाम विग्रहगति है उस विग्रह है गतिमें कार्माण शरीरका योग है अर्थात् कार्माण योगसे ही जीव एक गतिसे दूसरी गतिमें गमन करता · १८२ है। वार्तिककार विग्रहगति शब्दका अर्थ बतलाते हैं
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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