________________
AMRORIES
अध्याय
PECIORSCRECORI
BRUARASTRICALCRELATESCHOOSE
इंद्रियोंके व्यापारकी अपेक्षा न कर श्रुतज्ञानका उत्पन्न करना, मनका स्वतंत्र प्रयोजन वा कार्य है। अर्थात् श्रुतज्ञान मतिपूर्वक ही होता है।
श्रुतं श्रोत्रंद्रियस्य विषय इति चेन्न श्रोत्रंद्रियग्रहणे श्रुतस्य मतिज्ञानव्यपदेशात् ॥१॥ ___ श्रुतको मनका विषय बताया गया है परंतु वह श्रोत्र इंद्रियका विषय है इसलिये श्रुतज्ञानको 9 मनका स्वतंत्र कार्य मानना अयुक्त है ? सो ठीक नहीं श्रोत्र इंद्रियसे जायमान ज्ञानको मतिज्ञान माना र है। यदि श्रुतका श्रोत्र इंद्रियसे ग्रहण माना जायगा तो वह मतिज्ञान ही कहा जायगा श्रुतज्ञान नहीं है कहा जा सकता। इसलिये यहांपर यह व्यवस्था है कि
जहांपर श्रोत्र इंद्रियसे ग्रहण हो वह तो मतिज्ञान है उसके अवग्रह ईहा आदि भेद ऊपर कह दिये जा चुके हैं और उसके बाद उस मतिज्ञानपूर्वक जो जीव अजीव आदिके स्वरूपका ग्रहण होना है वह ६ श्रुतज्ञान है । तथा वह श्रुतज्ञान सिवाय मनके अपनी उत्पचिमें किसी भी इंद्रियकी सहायताकी अपेक्षा ६ नहीं रखता इसलिये वह स्वतंत्र रूपसे मनका कार्य है। इसरीतिसे 'श्रुतज्ञानके विषयभूत पदार्थ वा स्वयं श्रुतज्ञानका श्रोत्र इंद्रियसे ग्रहण होता है अनिद्रियस्वरूप मनसे नहीं' यह कथन निर्हेतुक है ॥२१॥
इंद्रियोंके नाम बतला दिये गये । उनके स्पर्श रस आदि विषयोंका भी वर्णन कर दिया गया परंतु किस किस इंद्रियका कौन कौन स्वामी है यह अभीतक नहीं बतलाया इसलिये अब उनके स्वामियोंके वर्णन करते समय, सूत्रकार सबसे पहिले कही गई स्पर्शन इंद्रियका स्वामी बतलाते हैं
___ वनस्पत्यंतानामेकं ॥२२॥ अर्थ-वनस्पति काय है अंतमें जिनके उन जीवोंके अर्थात् पृथिवीकायिक अप्कायिक तेजःकायिक
C ISISTRICINEPPINESS
६७१