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०रा०
अभ्यास
सूंघे वह घाण, स्वयं पदार्थों को देख वह चक्षु और स्वयं शब्दोंको सुने वह श्रोत्र इंद्रिय है। इसप्रकार स्पर्शन आदि इंद्रियोंकी यह कर्तृसाधन व्युत्पचि है।
यदि यहांपर यह शंका की जाय कि युद् प्रत्ययका विधान कर्तामें ही होता है करणमें नहीं इसलिये | जहाँपर स्पर्शन आदिकी कर्तृसाधन व्युत्पचि होगी वहींपर स्पृश आदि धातुओंसे युद् प्रत्यय करनेपर | स्पर्शन आदि शुद्ध माने जा सकते हैं किंतु करुणसाधन व्युत्पचिमें उनकी सिद्धि नहीं हो सकती इस|लिये करण साधन अर्थमें जो स्पृश आदि धातुओंसे युद् प्रत्ययका विधान किय गया है वह अयुक्त है ? | सो ठीक नहीं । कर्ता में जो युट् प्रत्ययका विधान माना है वह बहुलतासे है अर्थात् कहींपर काम | होता है और कहीं पर करण साधन अर्थमें भी होता है इसलिये करणसाधन अर्थमें भी युट प्रत्ययका विधान युक्त होनेपर स्पर्शन आदिको कारण साधन व्युत्पत्चि अयुक्त नहीं। ___ श्वेतांबर ग्रंथों में 'स्पर्शनरसनघाणचक्षुःश्रोत्राणींद्रियाणि' ऐसा सूत्र पाठ है परंतु वह युक्त नहीं | क्योंकि
आधिकृतत्वादिद्रियाणीत्यवचनं ॥२॥ 'पंचेद्रियाणि' इस सूत्रमें इंद्रिय शब्दका उल्लेख किया गया है। जितने भर सूत्र हैं सोपस्कार हुआ ही करते हैं। इसलिये उस सूत्रसे स्पर्शनरसनेत्यादि सूत्रमें इंद्रिय शब्दकी अनुवृत्ति होनेसे पुनः इंद्रिय शब्दका कथन करना व्यर्थ है । वार्तिककार स्पर्शन आदि इंद्रियोंके क्रमिक कथनपर विचार करते हैं
स्पर्शनग्रहणमादौ शरीरव्यापित्वात् ॥३॥ सर्वसंसारिषूपलब्धेश्च ॥ ४॥ पांचो इंद्रियोंमें स्पर्शन इंद्रिय समस्त शरीरको व्याप्त कर रहती हैं इसलिये सूत्रमें सबसे पहिले
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