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________________ अध्याशि ०रा० भाषा | सर्वनामके अंतर्भूत माना है उसीप्रकार द्वींद्रियादि यहाँपर उपलक्षणभूत भी द्वद्रियका अंतर्भाव त्रसकायमें है इसलिए द्वंद्रिय जीवोंको त्रसकाय मानना बाधित नहीं कहा जासकता। यदि कदाचित यहां पर यह शंका की जाय कि समासका अर्थ समुदायनिष्ठ माननेसे जब उपलक्षणस्वरूप भी दंद्रियोंका ग्रहण त्रसोंमें कर लिया है तब 'पर्वतादीनि क्षेत्राणि' यहांपर भी पर्वत शब्दका क्षेत्रों में अंतर्भाव करना | चाहिए। यहां पर्वत पदार्थका परित्याग क्यों ? सो ठीक नहीं। पर्वतका क्षेत्रोंमें अंतर्भाव हो ही नहीं सकता क्योंकि पर्वतको क्षेत्र नहीं माना गया इसलिए उसका क्षेत्रों में ग्रहण नहीं माना है । दींद्रियका तो त्रसोंमें अंतर्भाव आगमसिद्ध है इसलिए उसका त्रसोंमें अंतर्भाव करनेमें कोई आपचि नहीं। इसप्रकार है द्वौद्रिय तेइंद्रिय चतुरिंद्रिय और पंचेंद्रिय इन चारप्रकारके जीवोंकी त्रस संज्ञा है । द्वीद्रियादि जीवोंके है प्राणोंकी संख्या इसप्रकार है स्पर्शन इंद्रिय रसना इंद्रिय वचनबल कायबल उच्छासनिश्वास और आयु ये छह प्राण इंद्रिय जीवों के होते हैं। इन छह प्राणों में घ्राण इंद्रियके अधिक जोडदेनेपर सात प्राण तेइंद्रिय जीवके होते हैं। इन्हीं सातोंमें चक्षु इंद्रिय अधिक जोडदेनेपर आठप्राण चौइंद्रिय जीवोंके होते हैं। इन्हीं आठोंमें श्रोत्र इंद्रिय अधिक जोड देनेपर नौ प्राण असंज्ञा पंचेंद्रिय तियचोंके होते हैं । तथा मनोवल अधिक दश प्राण सही। इ|| पंचेंद्रिय तियंच, मनुष्य देव और नारकियोंके माने हैं ॥१४॥ बद्रियादयस्त्रसाः' इससूत्रों आदि शब्दसे इंद्रियोंका निर्देश किया है परंतु वे कितनी हैं यह नहीं || बतलाया गया इसलिये सूत्रकार अब उन इंद्रियोंकी इयत्ता बतलाते हैं-अथवा इस सूत्रकी उत्थानिका इसप्रकार भी है-- SDESIBABASAB55-15RSIBILER MUHUREGISTEGORIEDGEORGEORAEBARENESCRM ERSAR
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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