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________________ P अध्याय माना समुच्चयाभिव्यक्त्यर्थं चशब्दोऽनर्थक इति चेन्नोपयोगस्य गुणभावपूदर्शनार्थत्वात् ॥५॥ 'गंगारिणो मताभ यहां पर शब्दका अर्थ समच्चय माना है तथा "आपसमें विशेषण विशेष्य | रूपकी अपेक्षा न कर अनेक शब्दोंका वाक्यमें भिन्न भिन्न रूपसे रहना” यह समुच्चय शब्दका अर्थ है ६३३ यहाँपर भी संसारी और मुक्त दोनों शब्द भिन्न भिन्न हैं यह बात बतलानेकेलिये सूत्रमें चशब्दका उल्लेख किया गया है परंतु जिसप्रकार 'पृथिव्यप्तेजोवायुः" इस वाक्यमें पृथिवी आदि शब्दोंका आपसमें विशेषण विशेष्य भाव नहीं है तथा अर्थ भी जुदा जुदा है इसलिये वे भिन्न भिन्न माने जाते हैं उसीप्र||l कार 'संसारिणो मुक्ता" यहांपर भी आपसमें विशेषण विशेष्य भाव नहीं तथा अर्थ भी जुदा है इसलिये संसारी और मुक्त दोनों शब्द भिन्न भिन्न हैं अतः उनमें भेद प्रकट करनेकेलिए समुच्चयार्थक चशब्दका | | उल्लेख करना व्यर्थ है ? सो ठीक नहीं । चशब्दके समुच्चय और अन्वाचय ये दोनों अर्थ हैं तथा एकको है प्रधान और दूसरोंको गौण बतलाना यह अन्वाचय शब्दका अर्थ है । सूत्रमें जो चशब्द है उसका अर्थ || यहां अन्वाचय है और एक जगह उपयोग गौणरूपसे रहता है और एक जगह मुख्यरूपसे रहता है यह वहां पर चशब्द द्योतन करता है इसरीतिसे 'भक्ष्यं चर देवदत्तं चानय' अर्थात् भिक्षाका आचरण 18|| करो और देवदत्तको ले आओ इस अन्वाचयके प्रसिद्ध उदाहरणमें जिसप्रकार भिक्षाका आचरण करना | प्रधान है और देवदचका लाना गौण है उसीप्रकार संसारी और मुक्त जीवोंमें संसारी जीव प्रधानतासे तू उपयोगवान है और मुक्तजीव गौणरूपसे उपयोगवान है यह चशब्दसे प्रदर्शित अर्थ है । यदि यहां पर है यह शंका हो कि संसारी जीवों में उपयोगकी मुख्यता क्यों और मुक्त जीवों में क्यों नहीं ? उसका समा धान वार्तिककार देते हैं ARAMECHHANGABADAAEASE SSSSSSSSSUREMESGUARA
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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