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________________ अपाण क्षेत्रपरिवर्तनके दो भेद हैं एक स्वक्षेत्रपरिवर्तन दूसरा परक्षेत्रपरिवर्तन । एक जीव सर्वजघन्य |३|| सरा अवगाहनाको जितने उसके प्रदेश हों उतनी बार धारणकर पीछे एक एक प्रदेश अधिक अधिककी | अवगाहनाओंको धारण करते करते महामत्स्यकी उत्कृष्ट अवगाहना पर्यंत अवगाहनाओंको जितने ६ ६२९|| समयमें धारण कर सके उतने कालसमुदायको एक स्वक्षेत्र परिवर्तन कहते हैं। कोई जघन्य अवगाहनाका धारक सूक्ष्मनिगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीव लोकके अष्ट मध्य प्रदेशों Pil को अपने शरीरके अष्टं मध्य प्रदेश बनाकर उत्पन्न हुआ, पीछे वही जीव उसी रूपसे उसस्थानमें दूसरी । || तीसरीबार भी उत्पन्न हुआ। इसीतरह घनांगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण जघन्य अवगाहनाके | जितने प्रदेश हैं उतनीबार उसीस्थानपर क्रमसे उत्पन्न हुआ और श्वासके अठारहवें भागप्रमाण क्षुद्र || || आयुको भोगकर मरणको प्राप्त हुआ। पीछे एक एक प्रदेशके अधिक क्रमसे जितने कालमें संपूर्ण 8 || लोकको अपना जन्मक्षेत्र बना ले उतने काल समुदायको एक परक्षेत्र परिवर्तन काल कहते हैं। कोई जीव उत्सर्पिणीके प्रथम समयमें पहिलीबार उत्पन्न हुआ उसीतरह दूसरीबार दूसरी उत्सर्पिणीMP के दूसरे समयमें उत्पन्न हुआ, एवं तीसरी उत्सर्पिणीके तीसरे समयमें तीसरीबार उत्पन्न हुआ।इसी क्रमसे || Pil उत्सर्पिणी तथा अवसर्पिणीके बीस कोडाकोडी सागरके जितने समय हैं उनमें उत्पन्न हुआ एवं इसी । BI क्रमसे मरणको प्राप्त हुआ इसमें जितना काल लगे उतने कालसमुदायको एक काल परिवर्तन कहते हैं। ||४|| ६ कोई जीव दश हजारवर्षके जीतने समय हैं उतनीबार जघन्य दश हजारवर्षकी आयुसे प्रथम नरकमें || 18 उत्पन्न हुमा, पीछे एक एक समयके अधिकक्रमसे नरकसंबंधी तेतीससागरकी उत्कृष्ट आयुको क्रमसे || १२९ | पूर्णकर अंतर्मुहूर्तके जितने समय हैं उतनीबार जघन्य अंतर्मुहूर्तकी आयुसे तिर्यंच गतिमें उत्पन्न होकर SAMBAKASORUKULAMBREACEBOOBCSADA- INCR
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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