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________________ असाय स०स० भोक्ता आत्मा माना जायगा तो हमेशा आत्मा सुख दुःख ही भोगता रहेगा कभी भी उसकी मोक्ष न होगी एवं अपने द्वारा जो कार्य कियागया है उसका नाश हो जायगा क्योंकि स्वयं उसका फल नहीं भोगा | जा सकता इसलिये जो कर्ता है वही भोक्ता है-कर्तासे अन्य कोई भोक्ता नहीं यही सिद्धांत निर्दोष है। द्रव्य क्षेत्र काल भव और भावके भेदसे संसार पांच प्रकारका है। इन्हींको पंच परावर्तन कहते हैं इनका स्वरूप सर्वार्थसिद्धि संस्कृत टीकामें विस्तारसे वर्णित है तथापि थोडासा खुलासा स्वरूप हम यहां| लिखे देते हैं बंधदि मुंचदि जीवो पडिसमयं कम्मपुग्गला विविहा। णोकम्मपुग्गलावि य मिच्छत्तकसायसंजुत्तो ॥ ६७ ॥ स्वा० का० अ०। मिथ्यात्व और कषाय भावोंसे संयुक्त यह जीव प्रतिसमय कर्म और नोकर्म पुद्गलोंका बांधता और छोडता हैं इसीका नाम द्रव्यसंसार वा द्रव्यपरिवर्तन है । सारार्थ-द्रव्यपरिवर्तनके दो भेद हैं । एक नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन दूसरा कर्मद्रव्यपरिवर्तन । नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन इसप्रकार है किसी जीवने स्निग्ध रूक्ष वर्ण गंधादिकके तीन मंद मध्यम भावों से यथासंभव भावोंसे युक्त | 18|| औदारिकादि तीन शरीरोंमसे किसी शरीर संबंधी छह पर्याप्तिरूप परिणमनके योग्य पुद्गलोंका एक | समयमें ग्रहण किया। पीछे द्वितीयादि समयोंमें उस कर्मकी निर्जरा कर दी। पीछे अनंतवार अगृहीत पुद्गलोंको ग्रहण कर छोड दिया। अनंतवार मिश्रद्रव्यको ग्रहण कर छोड दिया। अनंतवार गृहीत| को ग्रहण कर छोड दिया जब वही जीव उनही स्निग्ध रूप आदि भावोंसे युक्त उनही पुद्गलोंको जितने समयमें ग्रहण करे उतने काल समुदायको एक नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन कहते हैं। ६२५ RECARSAATA CONSURBISASURENARORISA
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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