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साकारानाकारभेदाद्विविधः ॥ १॥ साकार और अनाकारके भेदसे वह उपयोग दो प्रकारका है । जिस उपयोगमें कुछ आकार-भेद, मधाम विषय हो वह साकार उपयोग है और उसका अर्थ ज्ञान है एवं जिसमें कोई भी आकार विषय न हो वह अनाकार उपयोग है और उसका अर्थ दर्शन है।
अभ्यर्हितत्वाज्ज्ञानग्रहणमादौ ॥२॥ संख्याविशेषनिर्देशात्तन्निश्चयः॥३॥ ___ यद्यपि दर्शन ज्ञानसे पूर्वकालमें होनेवाला है इसलिए स दिविधोऽष्टेत्यादि सूत्रमें दर्शनका पहिले । है प्रयोग होना न्यायप्राप्त है तथापि ज्ञान पदार्थों का निश्चायक है और दर्शनका अर्थ केवल देखना है इस १
रीतिसे दर्शनकी अपेक्षा ज्ञान पूज्य होनेसे उसीका पहिले प्रयोग किया गया है जिसमें थोडे स्वर होते । हैं और जो पूज्य होता है उसीका पहिले प्रयोग होता है यह व्याकरणका सिद्धांत है। दर्शनकी अपेक्षा ६ ज्ञानमें थोडे स्वर हैं और उपर्युक्त रीतिसे पूज्य भी है इसलिए उसीका पहिले प्रयोग उपयुक्त है। यदि 5 यहाँपर यह कहा जाय कि ज्ञान और दर्शनका सूत्रमें तो उल्लेख है नहीं फिर "ज्ञानका पहिले ग्रहण
करना चाहिए" यह कैसे कहा जा सकता है । सो ठीक नहीं । सूत्रमें अष्टभेद और चतुर्भेद यह है संख्याविशेषका उल्लेख किया गया है वहांपर अष्टसंख्याका पहिले उल्लेख है और ज्ञानदर्शनमें आठ भेद है ज्ञानके ही माने हैं इसलिए सूत्रमें ज्ञानका आदिमें ग्रहण निर्वाध सिद्ध हैशंका___'संख्याया अल्पीयस्याः' जो शब्द अल्प संख्याका वाचक होता है उसका प्रयोग पहिले होता है यह व्याकरणका नियम है। जिसतरह 'चतुर्दश' यहांपर दशकी अपेक्षा चार संख्या अल्प है इसलिए चतुरशन्दका पहिले प्रयोग किया गया है। आठ और चारमें भी चार संख्या अल्प है इसलिए वहांपर
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