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________________ अध्याय स०स० भाषा 15515155555I- स्वरूपसे परिणाम नहीं हो सकता इसलिये आत्माका ज्ञानादिस्वरूपसे परिणमन मानना ठीक नहीं यह कहना बाधित है किंतु स्वपक्षसाधक परपक्षदूषक स्वरूप वचनका अपने पक्षको सिद्ध करना और परपक्षको दूषितकरना रूप आभिन्न भी परिणामको जिसप्रकार वादी मानता है उसीप्रकार आत्माका भी उपयोग परिणाम मानना चाहिये । तथा खसमयविरोधात् ॥ १०॥ - 'जो पदार्थ जिस रूपसे है उस रूपसे उसका परिणाम नहीं होता' यदि नास्तिक वादीको यह इष्ट. ४ा है तब उसने रूप रस आदि गुणस्वरूप पृथिवी जल तेज और वायु इन चार महाभूतोंको जो माना है । उनका रूप आदि स्वरूपसे परिणाम न होगा क्योंकि रूप आदि पृथिवी आदिके ही परिणाम हैं उनसे भिन्न नहीं । किंतु नास्तिक मतमें सफेद काला आदि रूप, खट्टा मीठा चरंपरा आदि रसादिस्वरूप विशेष परिणाम उनका माना है इसलिये यह माननेसे कि जो पदार्थ जिस स्वरूप होता है उसका उसरूपसे । | परिणाम नहीं होता पृथिवी आदिका विशिष्ट रूप आदि परिणाम जो उनके शास्त्रम स्वीकार किया है। | वह नहीं बनता यह उनके आगमका विरोध है । तथा यह भी बात है कि केनचिद्विज्ञानात्मकत्वात् ॥११॥ विज्ञानादैतवादी; आत्माको सर्वथा विज्ञानस्वरूप मानता है अन्य पर्याय स्वरूप नहीं इसलिये 'जो पदार्थ जिप्त स्वरूपसे है उस रूपसे उसका परिणाम नहीं होता' यह सिद्धांत उसीके मतमें लागू हो सकता है क्योंकि आत्माका एक ही विज्ञान स्वरूप होनेसे यदि वह अन्य किसी पर्यायस्वरूप परिणत |माना जायगा तो उसका केवल विज्ञानस्वरूप ही नष्ट हो जायगा । यदि यहां यह कहा जायगा कि ५९९ SANSARASTRASTRORAHASRAERABADASARSHANGA BSISRNSAR
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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